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पञ्चमः खण्डः - का० ३ प्रत्युत्पन्नं भावं वस्तुनो वर्त्तमानपरिणामम् विगत-भविष्यद्भ्यां पर्यायाभ्यां यत् समानरूपतया नयति = प्रतिपादयति वचः तत् प्रतीत्यवचनं = समीक्षितार्थवचनं सर्वज्ञवचनमित्यर्थः, अन्यच्चानाप्तवचनम् । ___ ननु वर्तमानपर्यायस्य प्रागपि सद्भावे कारकव्यापारवैफल्यम् क्रिया-गुण-व्यपदेशानां च प्रागप्युपलम्भप्रसंगश्च । उत्तरकालं च सद्भावे विनाशहेतुव्यापारनैरर्थक्यम् उपलब्ध्यादिप्रसंगश्च । ततो यद् यदैवोपलम्भादिकार्यकृत् तत् तदैव, न प्राक् न पश्चात्, अर्थक्रियालक्षणसत्त्वविरहे वस्तुनोऽभावात् । असदेतत् - तस्य प्रागसत्त्वेऽदलस्योत्पत्त्ययोगात् । न चात्मादिद्रव्यं विज्ञानादिपर्यायोत्पत्तौ दलम् तस्य निष्पन्नत्वात् । न च निष्पन्नस्यैव पुनर्निष्पत्तिः अनवस्थाप्रसंगात् । न च तत्र विद्यमान एव ज्ञानादिकार्योत्पत्तिः, 'तत्र' इति सम्बन्धाभावतो व्यपदेशाभावप्रसंगात्, समवायसम्बन्धप्रकल्पनायां तस्य सर्वत्राऽविशेषात् तद्वद् आकाशादावपि तत् स्यात् ।
____ व्याख्याः - ‘प्रत्युत्पन्न' शब्द वर्तमानकालवाची है, प्रत्युत्पन्न भाव यानी वस्तु का वर्तमानकालीन परिणाम । वर्तमान परिणाम की अतीत-अनागत पर्यायों के साथ समानरूपता दिखाने वाला वचन यह प्रतीत्यवचन है । प्रतीत्यवचन यानी सुचारुढंग से परीक्षित अर्थ का प्रतिपादक वचन । तात्पर्य यहाँ सर्वज्ञवचन से है। जो वैसा वर्तमान परिणाम को अतीत-अनागत पर्यायों से समानता दिखाने वाला नहीं होता, भिन्नता दिखानेवाला होता है, वह वचन ऐसे पुरुष का है जो आप्त नहीं है, विश्वासपात्र नहीं है ।
* वर्तमानपर्याय की त्रैकालिक सत्ता मानने पर शंका-समाधान * __शंका - वर्तमान पर्याय को अतीत पर्याय से अभिन्न बताने का मतलब होगा कि वर्तमान पर्याय पूर्व काल में भी विद्यमान था, उस की उत्पत्ति वर्तमान में हुई ऐसा कुछ नहीं है । अतः वर्तमान में उस की उत्पत्ति करने वाले कर्ता-करण आदि कारकों का कुछ भी योगदान निष्फल बना रहेगा । तथा, वर्तमान पर्याय वर्तमान काल में जिन क्रियाओं को सम्पन्न करता है, जिन गुणों से आलिंगित है, जिन पदों से व्यवहृत हो रहा है; उन क्रियाओं का, गुणों का तथा उन पदों के व्यवहार का पूर्वकाल में भी प्रचलन मानना होगा क्योंकि वर्तमान पर्याय की पूर्वकाल में भी आप विद्यमानता स्वीकारते हैं । ऐसे ही, वर्तमान पर्याय भविष्य पर्याय से अभिन्न होने के कारण भावि में भी उपलब्ध होता रहेगा और उस के विनाशकों का प्रयास निष्फल रहेगा। इन सभी अनिष्टों को टालने के लिये यह मानना उचित है कि जिस का उपलम्भादिकार्यकारित्व जिस काल में होता है उसी काल में उस की सत्ता है, पूर्व में भी नहीं और उत्तरकाल में भी नहीं । कारण, जिस काल में अर्थक्रियाकारित्वरूप सत्त्व न हो उस काल में वस्तु भी नहीं होती । ___ उत्तर :- यह शंका गलत है । यदि वर्तमान भाव की पूर्वकाल में किसी न किसी रूप में सत्ता नहीं मानेंगे तो उस की उत्पत्ति के आधारभूत किसी दल का पूर्वसद्भाव न होने से उस वर्तमान भाव की निराधार उत्पत्ति हो नहीं सकेगी । यदि कहें कि -- वर्तमान विज्ञानपर्याय की उत्पत्ति के लिये जो आधारभूत दल चाहिये वह आत्मा मौजूद है - तो यह ठीक नहीं, क्योंकि आत्मा यदि वर्तमान पर्याय से सर्वथा भिन्न है तो वह पूर्वकाल में किसी रूप से अपूर्ण नहीं है, सर्वप्रकार से निष्पन्न ही है । जो परिपूर्णरूप से निष्पन्न (यानी सम्भवित सर्वप्रकार से लब्धसत्ताक) है उसको नया कुछ प्राप्तव्य न होने से पुनः विज्ञानात्मना उसकी निष्पत्ति शक्य नहीं है । यदि निष्पन्न होने पर भी पुनः पुनः निष्पत्ति होने का मानेंगे तो उसकी निष्पत्ति का चक्र रुकेगा ही नहीं । यदि कहें कि -- विज्ञानभिन्न आत्मा जो पूर्वकाल में विद्यमान है उस में स्व से भिन्न वर्तमान
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