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सम्यक्त्व के पोषक तत्त्व
नही । मांगना तो कमजोरो का काम है । मैं भी तो उन कमजोरो मे से ही हूँ और अभी प्राथमिक कक्षा मे ही भटक रहा हूं। यदि इस समय इस साधन को नही अपनाउँ, तो आगे नही बढ सकूँगा।प्रभो । सम्यक्त्व रल मुझ मे मौजूद है, यह आप ही ने फरमाया था, किंतु वह दर्शनमोहनीय के भारी पर्वत के नीचे दबा हुआ है । यह इतना दबा हुअा है कि बिना आपके सहारे के निकल नही सकता । निसर्गरुचि (स्वभाव) से अपने आप मिथ्यात्व का पर्वत हटाकर सम्यक्त्व प्राप्त कर लू, इतनी योग्यता तो मुझ मे नही है । आपका सहारा लेकर ही मैं कुछ पा सकूगा।
परमार्थसंस्तवी, वीतरागता का उपासक होता है, सरागता का नही। वह त्याग का पुजारी होता है, भोगका नही । प्रभु की उपासना रागद्वेष का नाशकर वीतरागता प्राप्त करने के लिए करता है, ससार से पार होकर मुक्ति लाभ करने के लिए करता है, तभी वह परमार्थ-सस्तव होगा । वीतराग की स्तुति भी यदि रागद्वेष बढाने और वासना की पूर्ति के लिए की जाती है, तो वह जिनेश्वर की स्तुति होते हुए भी ' स्वार्थसंस्तव" होगा।
परमार्थ-सस्तव करने वाला सम्यक्त्व का प्रशसक होगा, मिथ्यात्व का नही । विरति का पक्षकार होगा, अविरति का नही । त्याग का पूजक होगा, भोग का नही । उसके वचनो से, उसकी कलम से, उसके हृदय से, ऐसी कोई बात नही निकलेगी कि जिससे मिथ्यात्व, प्रविरति, प्रमाद, भोग, प्रारम, परिग्रह