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सम्यक्त्व के पोषक तत्त्व
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रानी के उदयभाव जन्य मनोरथो का वर्णन करते हुए गाता है कि
"नन्दन नवला मोटा थासो ने परणावशु, बहुवर सरखी जोडी लावशु राजकुमार, सरखा वेहवाई वेहवाण पधरावशुं, बहुवर पोखी लइशु जोइ जोइ ने देदार । हालो हालो हालो हालोरे महारा वीर ने ।"
यह तो एक नमूना मात्र है । हमारे समाज मे ऐसे कई हालरिये और बालक्रीडाओ के पद्य प्रचलित है। खूब बने और खूब प्रचलित हुए । मर्यादा टूटी, तो इतनी असीम हो गई कि हमारे त्यागी संतो के द्वारा "राष्ट्र-स्तुति” झडा वदन, युद्ध गीत और वीर रस को जगाकर सघर्ष करने की उत्तेजना देने वाले पद्य भी इस जमाने मे बनकर प्रचारित हो चुके हैं । और इस प्रकार के पद्यो को ओघसंज्ञा से "धर्म स्तवन" ही कहते हैं । वास्तव मे ऐसे स्तवन, परमार्थ स्तुति नही है । यदि परमार्थ स्तुति करना हो, तो पहले शान्त एकान्त स्थान मे बैठिये । फिर मन को एकाग्र करके भगवान् अरिहत का ध्यान करिये । सोचिए कि हम चम्पानगरी के पूर्णभद्र चैत्य मे बैठे हैं । प्रभु महावीर अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वी -शिलापट्ट (जो एक सिंहासन जैसा है) पर बिराजमान हैं। उनके शान्त और प्रसन्न श्रीमुख से शाति-सुधा बरस रही है । उस पवित्र चेहरे पर चिंता, शोक, कषाय, श्रातुरता आदि रागद्वेषात्मक भावो की एक हल्की-सी रेखा भी नही है । यद्यपि ऊपरी शाति आन्तरिक शांति की परिचायक होती है, फिर भी आप इसमे मत उलझिये |