Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh

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Page 21
________________ एवं जिणेण कहिए, सविसेससमुल्लसन्तसुहभावो । राया कयप्पणामो, णिडालतडघडियकरकमलो जंपिउमाढत्तो जाव, नाह रज्जे ठवामि नियपुत्तं । ताव तुह पायमूले, पव्वज्जं संपवज्जामि भणितिय गुरुणा, जुज्जइ तुम्हारिसाण राय ! इमं । नहि विण्णायसरूवा, रमंति थेवंपि संसारे अह पणमियजिणचरणो, राया गंतूण निययभवणम्मि । सामन्तमंतिपमुहं, पवरजणं वाहारावेति भणइ य स गग्गरगिरं, अहो ममिहिं पव्वज्जिउं दिक्खं । जाया बुद्धी ता अहि- वइत्तदप्पाउ मोहा वा वट्टमवारे, तुम्ह मए किंपि कहवि तं सव्वं । खमियव्वं तुब्भेहिं, वुद्धिं नेयं च रज्जमिमं एवं ते अणुसासिय, महाविभूईए पुण्णदियहम्मि । जायम्मि सुहमुहुत्ते, रज्जम्मि ठवेइ जयसेणं सामंतमंतिमंडल-पमुहपहाणेण परियणेण समं । पणमित्ता सप्पणयं, कयंजली तमणुसासइ य जइ वि हु पयडीए च्चिय सच्चरियालंकियस्स तुह वच्छ ! । नो अत्थि सिक्खणिज्जं, तहवि अहं किं पि जंपेमि सामी मंती रखुं, जुग्गं कोसो बलं सुंही चेव । अण्णोण्णुवगारेणं, पुत्तय ! सत्तंगरज्जमिमं अवलंबिऊण सत्तं, बुद्धीए जहोचियं च चिंतित्ता । सत्तंगस्स वि एयस्स, लाभहेउं जएज्ज तुमं तत्थप्पाणं पढमं, ठवेज्ज विणए तओ अमच्चे उ । तत्तो मिच्चे पुत्ते य, तयणु पच्छा पुण पयाओ उत्तमकुलप्पसुई, रूवं रमणीमणोहरणचोरं । सत्थपरिकम्मिया तह, मई य भुयबलं वच्छ ! एसोय संपयं जो, विवेयमायंडगुंडणपयंडो । जोवणतमो वियंभइ, मोहमहामेहपडलघणो जाय बहसलहणिज्जा, पयई आणा य पणइसिरवूढा । एयाणेक्वेक्कं पि हु, सुदुज्जयं किं पुण समूहो गरुयविहलंघलत्तण-कारणदारेण दारुणो भुवणे । लच्छीमओ वि पुत्तय! पुरिसं लहुएइ सयहिं किंच सुइवायदिट्टिहरणे, नराण लच्छीए को विसंवायो । जं न कुणति गरलसहो - यरा वि मरणं तमच्छरीयं अण्णं च पढमाए असज्झे च्चिय, कज्जे बीयाइयाओ नीईओ । वावारेज्ज जहकमं, विचारइत्ता जहाजोगं जं सामनए सन्ते, सन्ते पुरिसाण भेयविण्णाणे । दाणे य संपडन्ते, को दंडे आयरं कुणइ अणुवत्तेज्जसु नीइं, पाणप्पियपणइणि व णिच्वंपि । अण्णायं पुण रुंभेज्ज, सव्वहा दुट्ठसत्तुं व वत्थण्णपाणभूसण- सेज्जाजाणाइएसु अपमत्तो । पेहेज्ज विसविगारं च भिंगारायाइपक्खीहिं पयडीए भिंगराओ, सुगो तहा सारिया इमे विहगा । सण्णिहियपण्णगविसा, करुणं कुव्वन्ति उव्विग्गा झत्ति विरज्जन्ति विसं, दट्ठूणं लोयणा चकोरस्स । नच्चइ फुडं च कुंचो, मरइ पुण मत्तकोइलओ १. सुही सुद् T ॥ ४४३ ॥ ॥ ४४४ ॥ ॥ ४४५ ॥ ॥ ४४६ ॥ ॥ ४४७ ॥ ।। ४४८ ।। ॥। ४४९ ॥ ।। ४५० ।। ।। ४५१ ।। ।। ४५२ ॥ ॥ ४५३ ॥ ।। ४५४ ॥ ।। ४५५ ।। ॥ ४५६ ॥ ૧૪ ।। ४५७ ॥ ।। ४५८ ।। ॥ ४६० ॥ पुव्वकयकम्मपरिणति - वसेण विहवो कुलं वरं रूवं । संपज्जइ रज्जं पि हु, गुणहेऊ ण उण विणयगुणो ता उज्झिऊण दप्पं, विणयं सिक्खेसु नो मयं भयसु । विणयोणयाण पुत्तय !, जायन्ति गुणा महग्घविया ॥ ४६१ ॥ भुवणलम्मि वियंभइ, विउसाणणकोणपहयजसपडहो। धम्मो कामो मोक्खो, कला य विज्जा य विणयाओ विणण लब्भइ सिरी, लद्धा वि पलाइ दुव्विणीयस्स । नीसेसगुणाहाणं, विणओ च्चिय जीवलोगम्मि किं बहुणा णत्थि जए, तं जं नो जायए इमार्हितो । तम्हा सिक्खसु विणयं पुत्तय ! कल्लाणकुलभवणं ॥ ४६२ ॥ तहा सत्तट्ठिए गोत्तट्ठिए, धम्मट्ठिईए अविरोहा । अत्थस्स अज्जणं जं, वद्धणमह रक्खणं जंच सम्मं च जं सुपत्ते, विणियोगो रायवित्तमिय चउहा । एत्थं पि पयट्टेज्जासु, परमपयत्तेण पुत्त ! तुमं सामं भेयं च उव-प्पयाणमह दंडमिय चउब्भेयं । निवनीई पियपुत्तय !, आराहेज्जासु झत्ति तुम किंतु ॥ ४५९ ॥ ॥ ४६३ ॥ ॥ ४६४ ॥ ॥ ४६५ ॥ ॥ ४६६ ॥ ॥ ४६७ ॥ ॥ ४६८ ॥ ॥ ४६९ ॥ ॥ ४७० ॥ ॥ ४७१ ॥ ॥ ४७२ ॥ ॥ ४७३ ॥

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