Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh

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Page 20
________________ अद्धत्तेरसलक्खे, रययस्स पणामिउं निवो तेसिं। पीईदाणं तो सिग्घ-मेव करिकन्धरारूढो सयलंतेउरपुरलोय-परिगओ मागहेहिं थुव्वंतो । निक्खंतो णयरीओ, वंदणवडियाए जयगुरुणो दूराउ च्चिय छत्ताइ - छत्तमालोइउं च हिट्ठमणो । पम्मुक्करायचिंधो, पंचविहाभिगमसंजुत्तो ओसरणे पविसित्ता, उत्तरदिसिसंठिएण दारेण । हरिसवसवियसियच्छो, सामिं तिपयाहिणेऊण महिविट्ठचुंबिणा मत्थ-एण पुणरुत्तविरइयपणामो । भालयलारोवियपाणि-पल्लवो थुणिमाढतो जय विमलकेवलालोय - दलियमिच्छत्तभीमतमपसर! । पसरंतुब्भडकलिकाल - मेहविद्दवणखरपवण ! खरपवणबलिंदियतुरय-वग्गनिग्गहणतिहुअणपसिद्ध ! । तिहुयणपसिद्धसिद्धत्थ - रायकुलकमलमायंड ! मायंड्डुड्डामरगुरुपयाव- पडिहयकुतित्थिविप्फुरण ! । रणरोगासिवपसमण-सहेक्कनामग्गहण ! देव ! देविन्दविन्दवन्दिय ! दढरागद्दोसदारुकरवत्ति ! । करवत्तिनिव्वुईसुह! जयसि तुमं जिण ! महावीर ! उवसग्गवग्गनिक्खोभयाए, कह मेरुणोवमा होज्ज । तुह देव ! चलियचलणं-गुलीए हलहलियसिहरेण कह तेजसोमयासु वि, उवमिज्जसि नाह! तं रविससीहिं । दिणरयणीण विरामे - जेसि सिरी दूरमुवरमति कहवा तेण तुलिज्जति, तुह जिण ! गंभीरिमावि जलनिहिणा । जो दुट्ठसत्तकयखोभ-णं पिणो गोविडं तरति इय दूरमसारिच्छे, उवमाणे जइ परं भुवणनाह ! । तुमए च्चिय तुममुवमि-ज्जसि त्ति मह चित्तसंवित्ती एवं थोऊण जिणं, गोयमपमुहे य गणहरे नमिउं । राया पसन्तचित्तो, तयणु निविट्ठो महीवट्ठे तो जयगुरुणा नरतिरिय - देवसाहारणाए वाणीए । पारद्धा धम्मकहा, कहिउं पीऊसवुट्ठिसमा कहं हो देवाणुपिया, जइ विहु तुज्झेहिं जलहिपब्भद्वं । रयणं पिव मणुयत्तं, संपत्तं कहवि तुडिजोगा जइ वि हु मणवंछियसयल - वत्थुसत्थेक्कसाहणसमत्था ! चिन्तामणि व्व भुयदंडचंडिमावज्जिया लच्छी विहु णो पेच्छिज्जति, तुच्छं पि हु पुण्णपगरिसवसेण । इट्ठवियोगाणिट्ठ- प्पओगपमुहं च किंपि दुहं जइ वि हु विसट्टकन्दोट्ट-दामदीहच्छियासु तरुणीसु । उवरमइ न थेवं पि हु, अच्चन्तं गाढपडिबंधो रागद्दोसविउत्तं, खणमेक्कं तह वि माणसं काउं । परिचितह एयाणं, सरूवमिय णिउणबुद्धीए एत्थ भवम्मि पत्तं पि, कह वि मणुयत्तमकयधम्मेण । एमेव हारियं पुण, पाविज्जति कहवि तुडिजोगा पुढवाइएसु जम्हा, जीवो परिवसति कालमस्संखं । तं चेव अनंतगुणं, वणस्सइम्मि गतो सन्तो अण्णासु वि विविहासुं, निंदियजोणीसु णेगवारा तो। जीवस्स भमन्तस्स, कत्तो च्चिय एयसंपत्ती अवि लब्भन्ति समत्थाइं, सेसमणवंछियाइं कज्जाई। सिवसोक्खसाहणखमं, एयं पुण नूण दुल्लभं जावि हुरुकलेस - प्पसाहिया दुक्खरक्खणिज्जा य। सयणनरनाहतक्कर-तक्कुयसाहारणा लच्छी आवयणिबंधणाए संमोहकरीए एगभवियाए । सरयब्भं व चलाए, विहलो तीए वि परितोसो पिय कपि संप, इट्ठवियोगाइ नावडइ दुक्खं । किंएत्तियमेत्तेण वि, तस्साभावो सया जातो जम्हा सिद्धे मोत्तुं, अण्णो सो नत्थि तिहुयणे वि जणो । सारीरमाणसाइं, जस्स वियंभंति न दुहाई तो च्चिय मुणिवसभा, सव्वं संगं विवज्जिउं दूरे । अब्भुज्जमन्ति भवभीरु - माणसा मोक्खसोक्खत्थं पुण इट्ठवियोगाइ, नेव थेवं पि होज्ज इह दुक्खं । तो नो करेज्ज दुक्कर- तवचरणं को वि मोक्खकए एयं च चिन्तह दढं, पडिबंधो जो य एस रमणीसु। सो किंपाकफलं पिव, मुहमहुरो अंतविरसो य अस्संखभवपरंपर-परिचयकरी सुहासयविदारी । सुमुणिजणवज्जणिज्जा, मणसा वि य नेव सरणिज्जा कपि एत्थ वसणं, दुक्खं जं किं पि जं च वयणिज्जं । सव्वस्स तस्स मूलं, एसा च्चिय गिज्जए एक्का भवसायरस्स पारं, ते च्चिय पत्ता पवित्तिया धरणी । तेहिं चिय सच्चरिएण, जेहिं चत्ता इमा दूरं इय भो महाणुभावा!, सुणिउणबुद्धीए चिन्तइत्ताणं । अणुसरह सरहसं धम्म - सारवावारमणवरयं १३ ॥ ४०८ ॥ ॥ ४०९ ॥ ॥ ४१० ॥ ॥ ४११ ॥ ॥ ४१२ ॥ ॥ ४१३ ॥ ॥ ४१४ ॥ ॥ ४१५ ॥ ॥ ४१६ ॥ ॥ ४१७ ॥ ॥ ४१८ ॥ ॥ ४१९ ॥ ॥ ४२० ॥ ॥ ४२१ ॥ ।। ४२२ ।। ॥ ४२३ ॥ ॥ ४२४ ॥ ।। ४२५ ।। ॥ ४२६ ॥ ॥ ४२७ ॥ ॥ ४२८ ॥ ।। ४२९ ।। ॥ ४३० ॥ ॥ ४३१ ॥ ॥ ४३२ ॥ ॥ ४३३ ॥ ॥ ४३४ ॥ ।। ४३५ ।। ॥ ४३६ ॥ ॥ ४३७ ॥ ॥ ४३८ ॥ ॥ ४३९ ॥ ॥ ४४० ॥ ॥। ४४१ ॥ ॥ ४४२ ॥

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