Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 173
________________ १४७ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्। विशेषव्याख्या-"अधिकरणं जीवाजीवाः" ( अ० ६ सू० ८ ) इस सूत्रके क्रमसे यहां 'पर' शब्दसे अजीव अधिकरणका ग्रहण है, और वह निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग, तथा निसर्ग, इन चार भेदोंमें संक्षेपसे विभक्त है। उनमें निर्वर्तनाधिकरणके दो भेद हैं । जैसेमूलगुणनिवर्तनाधिकरण तथा उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण । उनमें भी मूलगुणनिर्वर्तना पञ्चविध है, जैसे-शरीर (औदरिक आदि), वाक्, मन, तथा प्राण व अपान । और उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण काष्ठ, पुस्त, चित्रकर्मादिक । निक्षेपाधिकरण चार प्रकारका है । जैसे• अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण अर्थात् विना अन्वेषण किये किसी वस्तुको कहीं स्थापित करना । द्वितीय दुःप्रमार्जित निक्षेपाधिकरण अर्थात् उत्तमतासे मार्जन ( सफाई ) किये विना कहीं कुछ रख देना । तृतीय सहसानिक्षेपाधिकरण अर्थात् अकस्मात् (एकदम) कुछ रख देना । चौथा अनाभोगनिक्षेपाधिकरण अर्थात् विना शुद्ध किये तथा विना देखे स्थानमें शरीर आदिका रख देना । संयोगाधिकरण दो प्रकारका है । जैसे-भक्तपान ( अन्नपान) संयोजनाधिकरण, तथा उपकरण ( भोजनसे भिन्न अन्य सामग्री वस्त्राभूषण आदि ) संयोजनाधिकरण । और चतुर्थ निसर्गाधिकरण, तीन प्रकारका है । जैसे कामनिसर्गाधिकरण, वागनिसर्गाधिकरण, तथा मनोनिसर्गाधिकरण ।। ___ अत्राह । उक्तं भवता सकषायाकषाययोर्योगः साम्परायिकर्यापथयोरास्रव इति । साम्परायिकं चाष्टविधं वक्ष्यते । तत् किं सर्वस्याविशिष्ट आस्रव आहोस्वित्प्रतिविशेषोऽस्तीति । अत्रोच्यते । सत्यपि योगत्वाविशेषे प्रकृतिं कृति प्राप्यास्रवविशेषो भवति । तद्यथा अब कहते हैं कि आपने सकषाय तथा अकषायका योग साम्परायिक तथा ईर्यापथका आत्रवरूप ( अ० ६ सू० ५ में ) कहा है 'सो साम्परायिक आठ प्रकारका है। यह आगे ( अ० ६, सू० २६ में ) कहेंगे । सो यहांपर प्रश्न यह है कि सब योगोंका आस्रव अविशिष्ट ( विना किसी विशेषके ) है अथवा कुछ विशेष है ? । इस-पर कहते हैं कि यद्यपि योगस्वरूपमें विशेषता न रहनेपर भी प्रकृतिकी कृतिको प्राप्त होकर आस्रवमें विशेषता होती है । जैसेतत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः॥११॥ सूत्रार्थ—ए तत्प्रदोषादिक ज्ञानावरण तथा दर्शनावरणके आस्रवके कारण हैं। भाष्यम्-आस्रवो ज्ञानस्य ज्ञानवतां ज्ञानसाधनानां च प्रदोषो निह्नवो मात्सर्यमन्तराय आसादन उपघात इति ज्ञानावरणास्रवा भवन्ति । एतैर्हि ज्ञानावरणं कर्म बध्यते ॥ एवमेव दर्शनावरणस्येति ॥ विशेषव्याख्या-ज्ञान अथवा ज्ञानके साधनों, वा ज्ञानियोंके प्रदोष, निह्नव (ज्ञाना. दिका छिपाना, जैसे-जानते हुए भी कहना कि यह मैं नहीं जानता) मात्सर्य (डाह, देनेयोग्य ज्ञानको नहीं देना), अन्तराय (ज्ञानका व्यवच्छेद करना) आसादन ('ज्ञान प्रकाश करते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276