Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 226
________________ २०० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भगिनी भार्या दुहिता च भवति । भगिनी भूत्वा माता भार्या दुहिता च भवति । भार्या भूत्वा भगिनी दुहिता माता च भवति । दुहिता भूत्वा माता भगिनी भार्या च भवति ॥ तथा पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति । भ्राता भूत्वा पिता पुत्रः पौत्रश्च भवति । पौत्रो भूत्वा पिता भ्राता पुत्रश्च भवति । पुत्रो भूत्वा पिता भ्राता पौत्रश्च भवति । भर्ता भूत्वा दासो भवति । दासो भूत्वा भर्ता भवति । शत्रुर्भूत्वा मित्रं भवति मित्रं भूत्वा शत्रुर्भवति । पुमान्भूत्वा स्त्री भवति नपुंसकं च । स्त्री भूत्वा पुमान्नपुंसकं च भवति । नपुंसकं भूत्वा स्त्री पुमांश्च भवति । एवं चतुरशीतियोनिप्रमुखशतसहस्रेषु रागद्वेषमोहाभिभूतैर्जन्तुभिरनिवृत्तविषयतृष्णैरन्योन्यभक्षणाभिघातवधबन्धाभियोगाक्रोशादिजनितानि तीब्राणि दुःखानि प्राप्यन्ते । अहो द्वन्द्वारामः कष्टस्वभावः संसार इति चिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतः संसारभयोद्विग्नस्य निर्वेदो भवति । निर्विण्णश्च संसारप्रहाणाय घटत इति संसारानुप्रेक्षा ॥३॥ अनादि कालसे सिद्ध इस संसारमें नरक, तिर्यग्योनि, मनुष्य, तथा देवोंमें जन्मोंके ग्रहण करनेमें चक्रके तुल्य भ्रमण करते हुए जीवके कोई भी जीव वजन ( अपने) तथा परजन ( अन्य जन ) नहीं हैं। क्योंकि-चक्रके तुल्य भ्रमण करते हुए जीवके वजन तथा परजनकी व्यवस्था ही नहीं है। कारण—किसी जन्ममें वा इसी जन्ममें जो माता है, वह माता होकर जन्मान्तरमें भगिनी (बहिन ), भार्या (स्त्री) तथा कन्या भी होती है । और भगिनी होकर माता, भार्या तथा दुहिता (कन्या) होती है । और ऐसे ही किसी जन्ममें भार्या होकर पुनः जन्मान्तरमें भगिनी कन्या, कन्या तथा माता होती है । इसी प्रकार किसी जन्ममें कन्या होकर पुनः माता, भगिनी तथा भार्या होती है। ऐसे ही कोई जीव किसीका एक वा अनेक जन्ममें पिता होकर पुनः भ्राता, पुत्र, तथा पौत्र (पोता नाती) भी जन्मान्तरमें होता है, तथा भाई होकर जन्मान्तरोंमें पिता, पुत्र और पौत्र होता है तथा पौत्र होकर पुनः किसी जन्ममें पिता, भ्राता, तथा पुत्र होता है और कभी पुत्र होकर अन्य जन्ममें पिता, भ्राता तथा पौत्र होता है । इसी प्रकार चक्रवत् भ्रमणशील इस जन्ममरणमय संसारमें किसी स्त्रीका कोई पति होकर पुनः किसी जन्ममें दास होता है, और दास होकर पुनः कभी वही भर्ता (पति) होता है । ऐसे ही कोई जीव किसीका शत्रु होकर किसी जन्ममें मित्र होता है, और मित्र होकर पुनः शत्रु होता है । इसी रीतिसे किसी जन्ममें पुरुष होकर स्त्री होता है; और नपुंसक भी होता है । और स्त्री होकर पुरुष तथा नपुंसक भी होता है । तथा नपुंसक होके अन्य जन्ममें स्त्री तथा पुरुष भी होता है । इसी प्रकार चौरासी लक्ष योनियोंमें भ्रमण करते हुए राग तथा द्वेषसे पूर्ण तथा अतितृष्णाके वशीभूत जीव परस्पर ताडन, भक्षण, वध, बन्धन, अभियोग (मिथ्या अभिशाप वा कलंक) तथा निन्दा, कटुवचनआदिसे उत्पन्न अत्यन्त दुःखोंको प्राप्त होते हैं । अहो ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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