Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 242
________________ २१६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् विषयमें जो वैयावृत्त्य है वह शैक्षवैयावृत्त्य है। ग्लानका अर्थ ज्ञातही है, अर्थात् जो ग्लानि करनेयोग्य है उसके अर्थ वैयावृत्त्य । गणपदसे यहांपर स्थविरों ( वृद्धों) की सन्ततिकी संस्थितिका ग्रहण है उसका वैयावृत्त्य ।और कुलसे आचार्योंकी सन्ततिकी संस्थितिका ग्रहण है। उसका वैयावृत्त्य । सङ्घ श्रमण आदि चार प्रकारका है। उसका वैयावृत्त्य । साधु शब्द करके जो संयमसहित हैं उनका ग्रहण हैं, उन साधुओंका जो वैयावृत्त्य है वह साधुवैयावृत्त्य है।और संभोग करके जो युक्त हैं, वेसमनोज्ञ हैं, उनका जो वैयावृत्त्य है वह समनोज्ञवैयावृत्त्य है। इन आचार्य उपाध्याय आदिकी अन्न (भोजन), पान (जलसम्प्रदान आदि), वस्त्र, पात्र (कमण्डलु तथा अन्य पात्र आदि ), स्थान, आसन तथा विस्तर (बिछोना आदि), धर्मसाधनोंके सम्प्रदान आदिसे सेवा शुश्रूषा, ओषध आदि दान, वन वा अन्य दुर्गम स्थानोंमें तथा अन्य प्रकारके दुःखोंमें सेवा करनी; इत्यादि सब वैयावृत्त्य है ॥ २४ ॥ वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः॥२५॥ भाष्यम्-स्वाध्यायः पञ्चविधः । तद्यथा । वाचना प्रच्छनं अनुप्रेक्षा आम्नायः धर्मोपदेश इति । तत्र वाचनं शिष्याध्यापनम् । प्रच्छनं ग्रन्थार्थयोः । अनुप्रेक्षा ग्रन्थार्थयोरेव मनसाभ्यासः । आनायो घोषविशुद्धं परिवर्तनं गुणनं रूपदानमित्यर्थः । अर्थोपदेशो व्याख्यानमनुयोगवर्णनं धर्मोपदेश इत्यनन्तरम् । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या स्वाध्याय नामक चतुर्थ आभ्यन्तर तप पांच प्रकारकों है। जैसे-वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय, तथा धर्मोपदेश । इनमें वाचनासे शिष्योंको शास्त्रोंका अध्यापन अर्थात् शास्त्रोंका पढ़ाना विवक्षित है । प्रच्छन अर्थात् ग्रन्थके अर्थ तथा पाठको प्रश्नपूर्वक जान लेना । अनुप्रेक्षासे ग्रन्थ और अर्थका अपने मनसे अभ्यास करना अर्थात् ग्रन्थको अर्थपाठसहित मनन करना यह तात्पर्य है । आम्नायसे घोषविशुद्ध परिवर्तन (शुद्ध पाठका परिवर्तन) गुणनरूप दानसे यहांपर तात्पर्य है । तथा अर्थोपदेश, व्याख्यान, अनुयोगवर्णन और धर्मोपदेश, ये सब एकार्थवाची अर्थात् पर्यायवाचक शब्द हैं। तात्पर्य यह है कि धर्मोपदेशसे यहांपर धर्मका व्याख्यान सबको श्रवण करना अभीष्ट है ॥ २५ ॥ बाह्याभ्यन्तरोपध्योः ॥ २६ ॥ भाष्यम्-व्युत्सर्गो द्विविधः बाह्य आभ्यन्तरश्च । तत्र बाटो द्वादशरूपकस्योपधेः । आभ्यन्तरः शरीरस्य कषायाणां चेति ॥ । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-पञ्चम व्युत्सर्ग नामक आभ्यन्तर तप दो प्रकारका है। जैसे-बाह्य तथा आभ्यन्तर । इनमें बाह्य तो द्वादशरूपक उपाधिसम्बन्धी है । और आभ्यन्तर शरीर तथा कषायों (क्रोधमानादि ) से सम्बन्ध रखता है ॥ २६ ॥ .. Jain Education International For Personaf & Private Use Only www.jainelibrary.org

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