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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् विराधनाका प्रतिसेवी है, वह प्रतिसेवनाकुशील है । और कषायकुशील, निम्रन्थ, तथा स्नातक इन तीनोंको तो प्रतिसेवना होती ही नहीं है ॥ ___ तीर्थम् । सर्वे सर्वेषां तीर्थकराणां तीर्थेषु भवन्ति । एके त्वाचार्या मन्यन्ते पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीलास्तीर्थे नित्यं भवन्ति शेषास्तीर्थे वातीर्थे वा ।।
तीर्थक विषयमें:-सब निर्ग्रन्थ सब तीर्थकरोंके तीर्थों में होते हैं। और कोई २ आचार्य तो ऐसा मानते हैं कि पुलाक, बकुश तथा प्रतिसेवनाकुशील ये तीनो तीर्थमें नित्य होते हैं, और शेष (बाकी ) अर्थात् कषायकुशील, निर्ग्रन्थ तथा स्नातक ये तीर्थ वा अतीर्थमें भी होते हैं ।
लिङ्गम् । लिङ्गम् द्विविधम् द्रव्यलिङ्ग भावलिङ्गं च । भावलिङ्गं प्रतीत्य सर्वे पञ्च निप्रेन्था भावलिङ्गे भवन्ति द्रव्यलिङ्गं प्रतीत्य भाज्याः ॥
लिङ्गके विषयमें:-लिङ्ग दो प्रकारका है, एक तो द्रव्यलिङ्ग और दूसरा भावलिङ्ग, उनमेंसे भावलिङ्गको निमित्त मानकर पांचोही निर्ग्रन्थ भावलिङ्गमें होते हैं । और द्रव्यलिङ्गको निमित्त मानकर तो इनका विभाग करना चाहिये ।
लेश्याः । पुलाकस्योत्तरास्तिस्रो लेश्या भवन्ति । बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोः सर्वाः षडपि । कषायकुशीलस्य परिहारविशुद्धेस्तित्र उत्तराः । सूक्ष्मसंपरायस्य निर्ग्रन्थस्नातकयोश्च शुक्लैव केवला भवति । अयोगः शैलेशीप्रतिपन्नोऽलेश्यो भवति ॥
लेश्याके विषयमें:-पुलाकको अन्त्यकी तीन लेश्या होती हैं । बकुश तथा प्रतिसेवनाकुशीलको सब अर्थात् छहो लेश्या होती हैं । परिहारविशुद्धिस्थानवर्ती, तथा कषायकुशीलको अन्तकी तीन लेश्या होती हैं । सूक्ष्मसंपरायस्थानवर्ती और निम्रन्थ तथा स्नातकको केवल एक शुक्ल लेश्याही होती है । और अभोग अर्थात् भोगसे रहित जो शैलेशीप्राप्त है वह तो अलेश्य (लेश्यारहित ) ही होता है ॥
उपपातः । पुलाकस्योत्कृष्टस्थितिषु देवेषु सहस्रारे । बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोविंशतिसागरोपमस्थितिष्वारणाच्युतकल्पयोः । कषायकुशीलनिर्ग्रन्थयोस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिषु देवेषु सर्वार्थसिद्धे । सर्वेषामपि जघन्या पल्योपमपृथक्त्वस्थितिषु सौधर्मे । स्नातकस्य निर्वाणमिति ॥ ___ उपपातके विषयमें पुलाक निर्ग्रन्थका उपपात अर्थात् ऊर्ध्वगमन अथवा स्वर्गविशेषमें उत्पत्ति सबसे उत्कृष्ट ( उत्तम ) स्थितिवाले जो देव हैं उनमें सहस्रारनाम स्वर्गविशेषमें होती है । बकुश तथा प्रतिसेवनाकुशीलका उपपात बाईस २२ सागरोपमास्थितिवाले देवोंमें आरण तथा अच्युतकल्पमें होता है । कषायकुशील तथा निग्रन्थका उपपात अयस्त्रिंशत् (३३) सागरोपम स्थितिवाले देवोंमें सर्वार्थसिद्धनामक स्वर्ग वा विमानमें होता है । और सबका अर्थात् पांचोंकी जघन्य वा न्यूनसे न्यून स्थिति अथवा उपपात पल्योपम
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