Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 272
________________ २४६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नूतन ( नये ) कर्मके सन्तान (कर्मपरम्परा )के छिन्न होनेपर ॥ १॥ और यथोक्त ( शास्त्रकथित ) क्षयके निमित्तोंसे पूर्व उपार्जित कर्मोंको भी नाश करते हुए संसारका बीजभूत जो मोहनीय कर्म है वह भी सम्पूर्ण रूपसे नाशको प्राप्त हो जाता है, और इस मोहनीयके क्षीण होनेके पश्चात् ज्ञान प्रदर्शन अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अन्तराप ये तीनो कर्म एकही कालमें सम्पूर्ण रूपसे नाशको प्राप्त होते हैं ॥ ३ ॥ और जिस प्रकार गर्भसूचीके नाश होनेपर तालस्तंभ नष्ट होजाता है, इसी रीतिसे मोहनीय कर्मके क्षय होनेपर (शेष)कर्म स्वयं नष्ट हो जाते हैं ॥ ४ ॥ और इसके पश्चात् , अर्थात् मोहनीय तथा ज्ञानावरण आदि तीन कर्मोंके नाश होनेके अनन्तर क्षीणचतुष्का , तात्पर्य यह जिसके मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, तथा अन्तराय, ये चारो कर्म क्षीण (नष्ट ) हो गये हैं, ऐसा यह जीव कहा जाता वा होता है, और पुनः आख्यात ( यथाख्यात) संयममें प्राप्त होकर बीजबन्धनसे विनिमुक्त स्नातक तथा परमेश्वररूपही हो जाता है ॥ ५॥ और पुनः शेषकर्मफलापेक्ष अर्थात् आयुः नाम आदि शेष कर्मोंकी अपेक्षासे शुद्ध, बुद्ध, निरामय, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, जिन तथा केवली 'इत्यादि पदवाच्य' होता है ॥ ६ ॥ और सम्पूर्ण कर्मोंके क्षयके पश्चात् आयुः नाम आदि सब कर्मोंके नाशके अनन्तर इस प्रकार निवार्ण (मोक्ष) दशा प्राप्त होती है, जैसे सम्पूर्ण इन्धनोंके भस्म करनेके पश्चात् उपादान सन्तति (उपादानप्रवाह)से रहित शुद्ध देदीप्यमान अग्नि ॥ ७ ॥ जैसे बीजके सर्वथा भस्म होनेके पश्चात् पुनः अङ्कुरका प्रादुर्भाव (उत्पत्तिरूप दर्शन ) नहीं होता है, ऐसेही संसारके बीजभूत कर्मोंके सर्वथा दग्ध (भस्म वा क्षय) होनेपर पुनः यह जन्मा अथवा संसाररूप अङ्कुर नहीं उपजता (जन्मता वा उत्पन्न होता) है ॥ ८॥ पुनः पूर्वकर्मोंके प्रयोगसे, असङ्ग होनेसे, बन्धनसे विनिर्मुक्त होनेसे, तथा ऊर्ध्व गतिमें गौरव धारण करनेसे आलोकान्त (लोकान्त) पर्यन्त यह जीव ऊर्ध्व गमन करता है ॥ ९॥ कुंभकारके चक्रमें, दोला ( हिंडोला वा झूलनेके यंत्र )में तथा बाणमें जैसे पूर्वप्रयोगसे भ्रमण गमन आदि क्रिया होती हैं, ऐसेही सिद्धोंके भी ऊर्ध्वगतिरूप कर्म पूर्वप्रयोगसे कहा गया है ॥ १० ॥ जैसे मृत्तिका आदिके लेपरूप सङ्गसे विनिर्मुक्त होनेपर अलाबु (तुंबीफल )की जलमें ऊर्ध्व गति दृष्ट ( देखीगई ) है, ऐसेही कर्मोंके सङ्गसे विनिर्मुक्त (छूटनेपर ) होनेसे जीवकी भी ऊर्ध्व गति होती है ॥ ११ ॥ जैसे एरण्डफलके गुच्छके बन्धनसे छूटनेपर एरण्डबीजोंकी ऊर्ध्व गति होती है, ऐसेही कर्मरूपी बन्धनसे विनिर्मुक्त होनेपर सिद्ध जीवकी भी ऊर्ध्व गति होती है ॥ १२ ॥ उत्तम जिन महात्माओंने ऐसा कहा है कि जीव ऊर्ध्वगमनमें गौरव धर्म धारण करते हैं, और पुद्गल अधोमार्गकी गतिमें गौरवधारी होते हैं ॥ १३ ॥ जैसे पाषाण, वायु, और अग्निकी गति स्वभावसे ही अधोभाग, तिर्यक्, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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