Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 258
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् है कि सिद्ध क्षेत्रमें सिद्ध होता है, अर्थात् सिद्ध क्षेत्रमें यह जीव सिद्ध अवस्थाको प्राप्त होता है । और पूर्वभाव ज्ञापनीय नयका ( विषय ) जन्मके प्रति जैसे पञ्चदश कर्मभूमियोंमें उत्पन्न सिद्धताको प्राप्त होता है । संहरणके प्रति जैसे मानुष क्षेत्रमें सिद्ध होता है । उसमें प्रयत्नसंपन्न तथा संयतासंयत समाह्वय होते हैं । श्रमणी, अपगतवेद (वेदरहित ), परिहारविशुद्धिसंयत, पुलाक, अप्रमत्त, चतुर्दशपूर्वी तथा आहारक शरीरवाले नहीं समाहृत होते। ऋजुसूत्रनय और शब्द आदि (शब्द, समभिरूढ, और एवंभूत ) तीन नय प्रत्युत्पन्नभावज्ञापनीय हैं । और शेष नय अर्थात् नैगम, संग्रह और व्यवहार नय उभय भाव अर्थात् पूर्व भाव और प्रत्युपन्न भावको भी ज्ञापन (बोधन ) करते हैं। ___ कालः । अत्रापि नयद्वयम् । कस्मिन्काले सिद्ध्यंतीति।प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य अकाले सिद्धयति । पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्य जन्मतः संहरणतश्च । जन्मतोऽवसर्पिण्यामुत्सर्पिण्यामनवसर्पिण्युत्सर्पिण्यां च जातः सिद्धयति । एवं तावदविशेषतः । विशेषतोऽप्यवसर्पिण्यां सुष. मदुःषमायां संख्येयेषु सर्वेषु शेषेषु जातः सिद्धयति । दुःषमसुषमायां सर्वस्यां सिध्यति दुःषमसुषमायां जातो दुःषमायां सिध्यति न तु दुःषमायां जातः सिध्यति अन्यत्र नैव सिध्यति । संहरणं प्रति सर्वकालेष्ववसर्पिण्यामुत्सर्पिण्यामनवसर्पिण्युत्सर्पिण्यां च सिध्यति ॥ काल (के विषयमें ) इस विषयमें भी दो नय हैं । किस काल अर्थात् किस समयमें सिद्ध होता है । प्रत्युत्पन्नभावज्ञापनीय नयके विषयसे अकालमें सिद्ध होता है । और पूर्वभावज्ञापनीय नयके बलसे जन्मसे तथा संहरणसे भी (सिद्ध होता है) जन्मसे अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी, तथा अनवसर्पिणी कालमें उत्पन्न जीव सिद्ध होता है। इस रीतिसे अविशेष रूपसे (सिद्धताका वर्णन हुआ) और विशेषरूपसे अवसर्पिणीमें सुषम दुःषमा कालमें शेष सङ्ख्य वर्षों में उत्पन्न हुआ जीव सिद्ध होता है; और दुःषमसुषमामें सब कालमें सिद्ध होता है; तथा दुःषमसुषमामें उत्पन्न प्राणी दुःषमा सिद्ध होता है, न कि दुःषमामें उत्पन्न सिद्ध होता है; इसके अतिरिक्त अन्य कालमें नहीं सिद्ध होता, और संहरणके प्रति सब कालमें अर्थात् अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी तथा अनवसर्पिणीमें भी सिद्ध होता है। __ गतिः । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य सिद्धिगत्यां सिध्यति । शेषास्तु नया द्विविधा अनन्तरपश्चात्कृतगतिकश्च एकान्तरपश्चात्कृतगतिकश्च । अनन्तरपश्चात्कृतगतिकस्य मनुष्यगत्यां सिध्यति । एकान्तरपश्चात्कृतगतिकस्याविशेषेण सर्वगतिभ्यः सिध्यति ॥ ___ गति (के विषयमें ) । प्रत्युत्पन्नभावज्ञापनीय नयके अनुसार सिद्धिगतिमें सिद्ध होता है । और शेष नय दो प्रकारके हैं, अनन्तर तथा पश्चात् जिसने गति किया है वह, और एक अन्तर करके जिसने गति किया है वह । अनन्तरपश्चात्कृतगतिक मनुष्यगतिमें सिद्ध होता है । और एकान्तरपश्चात्कृतगतिककी गतिमें तो अविशेष रूपसे सब गतिसे सिद्ध होता है ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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