Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 245
________________ २१९ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । विचय अर्थात् विवेक तथा विचारके लिये, अपायविचय अर्थात् सन्मार्गसे दूरीकरण वा दूरीभवनरूप अपाय उसके विचय ( विवेक वा विचार ) के लिये, तथा विपाक अर्थात् कर्मोंके फलभोगरूप विपाकके विषयके लिये और संस्थानविचयके लिये जो स्मृतिसमन्वाहार (चिन्ताके निरोध )से निरन्तर ध्यान है वह धर्मध्यान है । और यह धर्मध्यान अप्रमत्त-संयत-गुणस्थानवी जीवको होता है ॥ ३७॥ और यह अन्य भी है उपशान्तक्षीणकषाययोश्च ॥ ३८॥ भाष्यम्-उपशान्तकषायस्य च धर्म ध्यानं भवति । किं चान्यत् .. सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-उपशान्तकषाय (जिसके कषाय शान्त होगये हैं ऐसा मनुष्य ) तथा क्षीणकषाय अर्थात् जिसके कषाय सर्वथा नष्ट होगये हैं ऐसा मनुष्य, इन दोनोंको अर्थात् उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती जीवोंको भी धर्म ध्यान होता है ॥३८॥ और अन्य यह भी है कि शुक्ले चाये ॥३९॥ भाष्यम्-शुक्ले चाद्ये ध्याने पृथक्त्ववितर्कैकत्ववितर्के चोपशान्तक्षीणकषाययोर्भवतः । आद्ये शुक्ले ध्याने पृथक्त्ववितर्कैकत्ववितर्के पूर्वविदो भवतः।। सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-शुक्ल ध्यानके चार भेद आगे (अ.९, सू. ४१) कहेंगे; उनमेंसे पृथक्त्ववितर्क तथा एकत्ववितर्क जो आदिके दो भेद हैं वे उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय पुरुषोंको होते हैं । आद्य अर्थात् आदिके जो पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क शुक्ल ध्यानके भेद हैं वे पूर्वविद् अर्थात श्रुतकेवलीको होते हैं ॥ ३९ ॥ परे केवलिनः ॥४०॥ भाष्यम्-परे द्वे शुक्लध्याने केवलिन एव भवतः न च्छद्मस्थस्य । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या—और परके दो शुक्ल ध्यान अर्थात् सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवृत्ति हैं ये केवली भगवान्को होते हैं न कि छद्मस्थको ॥ ४० ॥ अत्राह । उक्तं भवता पूर्वे ध्याने परे शुक्ले ध्याने इति तत्कानि तानीति । अत्रोच्यते अब कहते हैं कि आपने “पूर्वे ( आये) शुक्ले,” तथा “परे शुक्ले" अर्थात् पूर्वके दो शुक्ल ध्यान तथा परके दो शुक्ल ध्यान ऐसा कहा है, सो वे चारों शुक्ल ध्यान कौन २ हैं, इस हेतुसे यह आगेका सूत्र कहते हैं।पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवृत्तीनि ॥४१॥ भाष्यम्-पृथक्त्ववितकै एकत्ववितर्क काययोगानां सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्युपरतक्रियानिवृत्तीति चतुर्विधं शुक्लध्यानम् । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-पृथक्त्ववितर्क १ एकत्ववितर्क २ सूक्ष्मक्रियातिपाति ३ तथा व्युपरतक्रियानिवृत्ति ४ यह चार प्रकारका शुक्ल ध्यान है ।। ४१ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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