Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 227
________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २०१ कैसा द्वन्द्वाराम अर्थात् सुख, दुःख, शीतोष्ण, तथा संयोग वियोग आदि द्वन्द्वोंसे पूर्ण कष्टस्वभाव यह संसार है; इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये । इस प्रकार चिन्तन करते हुए तथा संसारके भयसे उद्विग्न जीवको निर्वेद (वैराग्य) उत्पन्न होता है । और निर्विण्ण (निर्वेद वा संसारसे ग्लानियुक्त ) होनेसे संसारके नाशार्थ ही वह प्रयत्न करता है । इस प्रकारसे संसारके स्वभावका चिन्तन यह तृतीय संसारानुप्रेक्षा व्याख्यात हुई ॥ ३ ॥ एक एवाहं न मे कश्चित्स्वः परो वा विद्यते । एक एवाहं जाये । एक एव म्रिये । न मे कश्चित्स्वजनसंज्ञः परजनसंज्ञो वा व्याधिजरामरणादीनि दुःखान्यपहरति प्रत्यंशहारी वा भवति । एक एवाहं स्वकृतकर्मफलमनुभवामीति चिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतः स्वजन - संज्ञकेषु स्नेहानुरागप्रतिबन्धो न भवति परसंज्ञकेषु च द्वेषानुबन्धः । ततो निःसङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव यतत इत्येकत्वानुप्रेक्षा ॥ ४ ॥ 1 इस संसार में मैं एक अर्थात् एकाकी ( अकेला ) ही हूं; मेरा कोई भी स्वकीय, अथवा परकीय (अन्य ) नहीं है । मैं अकेला ही उत्पन्न होता हूं, तथा अकेला ही मरता हूं। न तो मेरा कोई स्वजनसंज्ञक है और न परजनसंज्ञक है; अर्थात् मेरा कोई ऐसा सुहृद् (मित्र) नहीं है जो व्याधि जरा ( वृद्धावस्था ) तथा मरणआदि दुःखोंको अपहरण करे, वा ऐसा भी कोई नहीं है जो मेरा प्रत्यंश लेले । मैं तो एकाकी अपने किये हुए कर्मोंके फलोंका भोक्ता हूं, अर्थात् मेरे किये हुए कर्मों के फलोंका मुझसे अन्य कोई भी भोगनेवाला नहीं है, इत्यादि रीति से चिन्तन करै । इस प्रकार अपनेको एकाकी अर्थात् सर्वथा असहाय अकेला चिन्तन करते हुए इस जीवको स्वजनसंज्ञक जो स्त्री, पुत्र, भ्राता, मित्रआदि हैं; उनमें स्नेह अनुरागका प्रतिबन्ध नहीं होता, और जो परसंज्ञक शत्रुआदि हैं, उनमें द्वेषका भी अनुबन्ध नहीं होता । इस रीति से राग द्वेषके अभावसे निःसङ्गताको प्राप्त जीव मोक्षके ही अर्थ प्रयत्न करता है, इस प्रकार परम्परासे मोक्षसाधिका चतुर्थ एकत्वानुप्रेक्षा वर्णन की ॥ ४ ॥ शरीरव्यतिरेकेणात्मानमनुचिन्तयेत् । अन्यच्छरीरमन्योऽहम् ऐन्द्रियकं शरीरमतीन्द्रियो - ऽहम् अनित्यं शरीरं नित्योऽहम् अज्ञं शरीरं ज्ञोऽहम् आद्यन्तवच्छरीरमनाद्यन्तोऽहम् बहूनि च मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः स एवायमहमन्यस्तेभ्यः इत्यनुचिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतः शरीरप्रतिबन्धो न भवतीति अन्यश्च शरीरान्नित्योऽहमिति निःश्रेयसे संघटत इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा ॥ ५ ॥ आत्माको शरीरसे पृथक् चिन्तन करना चाहिये । शरीर अन्य पदार्थ है, और मैं शरीरादिसे विलक्षण अन्य पदार्थ हूं । शरीर तो इन्द्रियोंका विषय है, और मैं अतीन्द्रिय हूं, अर्थात् मेरा ( शुद्ध आत्माका ) स्वरूप इन्द्रियोंका विषय नहीं है । शरीर तो अनित्य (क्षणभङ्गुर ) है, और मैं ( आत्मा ) नित्य हूं । शरीर अज्ञ अर्थात् जड है, और मैं ज्ञ अर्थात् ज्ञानस्वरूप चेतन हूं । शरीर आदि अन्तवाला है, और मैं अनादि अनन्त अवि Jain Education Internat al For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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