Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 238
________________ २१२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्रकारकी बाधाओंरहित, संसर्गशून्य तथा स्त्री, पशु और नपुंसक जीवोंसे वर्जित, जो शून्य गृह, देवालय, सभा तथा पर्वतकी गुहा ( गुफा ) हैं, इनमेंसे किसी एकका समाधिके लिये आश्रय लेना, अर्थात् इन स्थानोंमेंसे किसी एकमें निवास करके समाधिमें निमग्न रहना ॥ विविक्तशय्यासनता नाम एकान्ते ऽनाबाधेऽसंसक्ते स्त्रीपशुषण्डकविवर्जिते शून्यागारदेवकुलसभापर्वतगुहादीनामन्यतमे समाध्यर्थ संलीनता ॥ ___ कायक्लेशोऽनेकविधः। तद्यथा । स्थानवीरासनोत्कडुकासनैकपार्श्वदण्डायतशयनातापनाप्रा. वृतादीनि सम्यक्प्रयुक्तानि बाह्यं तपः । अस्मात्षडिधादपि बाह्यात्तपसः सङ्गत्यागशरीरलाघवेन्द्रियविजयसंयमरक्षणकर्मनिर्जरा भवन्ति ॥ षष्ठ बाह्य तप कायक्लेश भी अनेक प्रकारका है । जैसे, स्थान (कायक्लेशदायक किसी प्रकारकी स्थिति ), वीरासन (आसनविशेष ), उत्कडु (टु) क आसन, पार्श्व तथा दण्डायत शयन, धर्म (घाम वा धूप ) स्थानमें स्थिति, तथा आवरण (छप्पर) आदि वृष्टि आदिके निरोध करनेके पदार्थोंसे वर्जित स्थानमें निवास आदि, ये सब उत्तम रूपसे किये हुए बाह्य तप हैं । इस छः प्रकारके भी बाह्य तपसे संगका त्याग, शरीरकी लघुता, इन्द्रियोंका जीतना, संयमोंकी रक्षा और कर्मनिर्जरारूप फल होते हैं ॥ १९ ॥ प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥२०॥ भाष्यम्-सूत्रक्रमप्रामाण्यादुत्तरमित्यभ्यन्तरमाह । प्रायश्चित्तं विनयो वैयावृत्त्यं स्वाध्यायो व्युत्सर्गो ध्यानमित्येतत्षड्डिधमाभ्यन्तरं तपः ॥ . सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-सूत्रके क्रमके प्रमाणसे उत्तरके जो तप हैं वे आभ्यन्तर हैं ऐसा कहते हैं । तात्पर्य यह है कि अनशन आदि जो छः तप बाह्य कहे हैं उनके उत्तर (आगे) के प्रायश्चित्त आदि छः तप आभ्यन्तर ( भीतर ) आत्मासे सम्बन्ध रखनेवाले, अथवा अनशन आदि षट् बाह्य ( बहिरङ्ग) तप हैं, और उनके उत्तरके प्रायश्चित्त आदि छः आभ्यन्तर ( अन्तरङ्ग ) हैं । वे क्रमसे प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, तथा ध्यान ये ६ आभ्यन्तर तप हैं ॥ २०॥ नवचतुर्दशपंचद्विभेदं यथाक्रमं प्रारध्यानात् ॥२१॥ भाष्यम्-तदाभ्यन्तरं तपः नवचतुर्दशपञ्चद्विभेदं भवति यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् । इत उत्तरं यद्वक्ष्यामः । तद्यथा । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-वह आभ्यन्तर तप ध्यानके पूर्व नव (नौ), चार, दश; पांच तथा द्वि (दो) भेद सहित यथाक्रमसे जानना चाहिये, अर्थात् प्रायश्चित्त ९ भेद सहित है, विनय ४ भेद, वैयावृत्त्य १० भेद, स्वाध्याय ५ भेद, तथा व्युत्सर्ग २ भेदसहित है। अब इसके अनन्तर उन भेदोंको कहेंगे। जैसे:- ... Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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