Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 237
________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २११ क्लेश इत्येतत्षड्विधं बाह्यं तपः सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिरित्यतः प्रभृति सम्यगित्यनुवर्तते । संयमरक्षणार्थं कर्मनिर्जरार्थं च चतुर्थषष्ठाष्टमादि सम्यगनशनं तपः ॥ विशेषव्याख्या – अनशन ( भोजनाभाव अथवा उपवास ), अवमौदर्य (न्यूनाहारता ), वृत्तिपरिसंख्यान ( जीविकाका नियम ), रसपरित्याग ( उत्तम स्वादिष्ट पदार्थों का त्याग ), विविक्तशय्यासनता ( एकान्तमें शयन तथा आसन) और कायक्लेश ( शरीरको क्लेश देना ) यह छः प्रकारका बाह्य तप है | 'सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः' (अध्या० ९ सू० ४) इस सूत्र से यहांपर " सम्यक् " इस पदकी अनुवृत्ति होती है; अर्थात् सम्यक् पद इस सूत्र में आता है । इससे यह अर्थ है कि जो संयमकी रक्षाके लिये तथा कर्मोंकी निर्जरा ( हानि वा नाश) के लिये चतुर्थ, षष्ठ (छठे ) वा अष्टम आदि समयोंमें उपवास करना है वह सम्यकू अनशन (उत्तम उपवास ) रूप बाह्य तप है । मौदर्यम् अवममित्यूननाम । अवममुदरमस्य अवमोदरः अवमोदरस्य भावः अवमौ - दर्यम् । उत्कृष्टावकृष्टौ वर्जयित्वा मध्यमेन कवलेन त्रिविधमवमौदर्य भवति । तद्यथा । अल्पाहारावमौदर्यमुपार्थावमौदर्य प्रमाणप्राप्तात्किचिदूनावमौदर्यमिति कवलपरिसङ्ख्यानं च प्राग्द्वात्रिंशद्भ्यः कवलेभ्यः ॥ अवमौदर्य "अवम" यह न्यून ( क्रम ) वाची नाम है, अर्थात् अवम इसका अर्थ न्यून है, इस लिये अवम (न्यून ) अर्थात् खाली है उदर पेट जिसका वह अवमोदर है और अमोदरका जो भाव है वह अवौदर्य है । अर्थात् उदरका भारीपन न होना । उत्कृष्ट तथा अवकृष्टको अर्थात् सर्वोत्कृष्टता तथा सर्व न्यूनताको त्यागकर मध्य कवल ( मध्यम कवलाहार ) से तीन प्रकारका अवमौदर्य्य होता है । जैसे- अल्पाहार अवमौदर्य ( अल्प · भोजनसे पेटका हलकापना ), उपाधवमौदर्य (अर्द्धभोजनसे अवमौदर्य ), तथा प्रमाण जो प्राप्त है उससे अवमौदर्य्य ( पेटकी न्यूनता ) और इसमें कवलों (ग्रासों) की परिसंख्या (गणना) करनी होती है, जैसे बत्तीस कवलोंसे न्यून आहार करना । वृत्तिपरिसङ्ख्यानमनेकविधम् । तद्यथा । उत्क्षिप्तान्तप्रान्तचर्यादीनां सक्तकुल्माषैौदनादीनां चान्यतममभिगृह्यावशेषस्य प्रत्याख्यानम् ॥ तृतीय वृत्तिपरिसङ्ख्यानरूप बाह्य तप अनेक प्रकारका है । जैसे उत्क्षिप्त, तथा प्रान्त, चर्य्या आदिमेंसे, और सक्त ( सत्तू ), कुल्माष, अर्द्धपरिपक्क गेहूँ चने आदि मिश्रित ( मिलित अन्न ) तथा ओदन (भात) इनमें से किसी एकको ग्रहण करके दूसरोंका त्याग । रसपरित्यागोऽनेकविधः । तद्यथा । मद्यमांसमधुनवनीतादीनां रसविकृतीनां प्रत्याख्यानविरसरूक्षाद्यभिग्रहश्च ॥ ऐसेही रसपरित्याग चतुर्थ बाह्य तप भी अनेक प्रकारका है । जैसे- मद्य, मांस, मधु, तथा स्त्री आदि रसविकारोंका त्याग, और कुरस रूक्ष आदि पदार्थोंका ग्रहण करना । तथा पञ्चम बाह्य तप विविक्त शय्यासनता है, जिसका तात्पर्य यह है कि एकान्त - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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