Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 233
________________ _ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २०७ पञ्चास्तिकाय अर्थात् जीवास्तिकाय आदि पञ्चास्तिकाय स्वरूप अनेक प्रकारके परिणामों (परिवर्तनों) से संयुक्त, तथा उत्पत्ति, स्थिति, अन्यभावकी प्राप्ति, तथा नाशसे युक्त यह संसार है ऐसा चिन्तन करै । इस प्रकार विचार करते हुए इस जीवकी तत्त्वज्ञानकी परिशुद्धता होती है । यह इस रीतिसे दशम लोकाऽनुप्रेक्षा व्याख्यात हुई ॥ १० ॥ ___ अनादौ संसारे नरकादिषु तेषु भवग्रहणेष्वनन्तकृत्वः परिवर्तमानस्य जन्तोर्विविधदुःखाभिहतस्य मिथ्यादर्शनाद्युपहतमतेर्ज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायोदयाभिभूतस्य सम्यग्दर्शनादिविशुद्धो बोधिदुर्लभो भवतीत्यनुचिन्तयेत् । एवं ह्यस्य बोधिदुर्लभत्वमनुचिन्तयतो बोधिं प्राप्य प्रमादो न भवतीति बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा ॥११॥ . अनादिकालसे सिद्ध इस संसारमें, नरक आदिमें, उन २ जन्मोंके धारण करने, अनन्तवार भ्रमण करते हुए, अनेक प्रकारके दुःखोंसे पीड़ित, मिथ्यादर्शन आदिसे नष्ट बुद्धिवाले, तथा ज्ञानावरणीय, दशर्नावरणीय, मोह और अन्तरायभूत कर्मोंके उदयसे पराजित इस जीवको सम्यग्दर्शन आदिसे सर्वथा शुद्ध ज्ञानकी प्राप्ति अतिदुर्लभ है ऐसा चिन्तन करै। इस रीतिसे बोधिदुलर्भताका निरन्तर अनुचिन्तन करतेहुए इस जीवको बोधिकी प्राप्ति होती है, और बोधिको प्राप्त करनेसे प्रमाद अर्थात् अशुभाचरण नहीं होता, इस प्रकारसे यह एकादश बोधिदुर्लभत्वाऽनुप्रेक्षा वर्णित हुई ॥ ११ ॥ __ सम्यग्दर्शनद्वारः पञ्चमहाव्रतसाधनो द्वादशाङ्गोपदिष्टतत्त्वो गुप्त्यादिविशुद्धव्यवस्थानः संसारनिर्वाहको निःश्रेयसप्रापको भगवता परमर्षिणाहताहो व्याख्यातो धर्म इत्येवमनुचिन्तयेत् । एवं ह्यस्य धर्मस्वाख्याततत्त्वमनुचिन्तयतो मार्गाच्यवने तदनुष्ठाने च व्यवस्थानं भवतीति धर्मस्वाख्याततत्त्वानुचिन्तनानुप्रेक्षा ॥ १२॥ ___ सम्यग्दर्शनका द्वारभूत, अर्थात् सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका द्वार ( दरवाजा ), पञ्चमहाव्रत. रूप साधनोंसे संयुक्त, द्वादश ( बारह ) अङ्गोंसे युक्त, सब जीव आदि तत्त्वोंका उपदेश करनेवाला, गुप्ति आदिके अतिशुद्ध व्यवस्थान (व्यवस्था वा मर्यादा ) सहित, संसारसे पार उतारनेवाला (अथवा संसारनाशक ), तथा मोक्षका प्रापक, भगवान् परमर्षि अर्हतकरके कथित धर्म कैसा उत्तम है, अर्थात् सर्वश्रेष्ठ है, ऐसा चिन्तन सदा करना चाहिये । इस प्रकारसे धर्मसे कथित तत्त्वको अनुचिन्तन करते हुए इस जीवका मार्ग (धर्ममार्ग) से पतन न होने तथा धर्ममार्गके अनुकूल अनुष्ठान करनेमें व्यवस्थिति होती है । इस रीतिसे यह द्वादश धर्मस्वाख्याततत्त्वानुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥ १२ ॥ ७ ॥ उक्ता अनुप्रेक्षाः । परीषहान्वक्ष्यामः। अनुप्रेक्षाओंको कहचुके, अब इसके पश्चात् परीषहोंको कहेंगे। मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः॥८॥ भाष्यम्-सम्यग्दर्शनादेर्मोक्षमार्गादच्यवनाथ कर्मनिर्जरार्थ च परिषोढव्याः परीषहा इति । तद्यथा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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