Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 234
________________ २०८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या सन्मार्गसे न गिरने तथा कर्मोंकी निर्जरा(नाश)के लिये परीषहों (अनेक प्रकारके उपद्रवों वा पीड़ाओं )को सहन करना चाहिये । अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि जो मोक्षमार्ग है उससे अच्यवन (न गिरने ) के अर्थ तथा कर्मोंकी निर्जरा ( एकदेशी नाश )के अर्थ वक्ष्यमाण द्वाविंशति ( २२ बाईस ) परीषहोंको सहन करना चाहिये ॥८॥ क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनारन्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि९ __ भाष्यम्-क्षुत्परीषहः पिपासा शीतम् उष्णं दंशमशकं नाग्न्यम् अरतिः स्त्रीपरीषहः चर्यापरीषहः निषद्या शय्या आक्रोशः वधः याचनम् अलाभः रोगः तृणस्पर्शः मलं सत्कारपुरस्कारः प्रज्ञाज्ञानेऽदर्शनपरीषह इत्येते द्वाविंशतिधर्मविघ्नहेतवो यथोक्तं प्रयोजनमभिसंधाय रागद्वेषौ निहत्य परीषहाः परिषोढव्या भवन्ति । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-क्षुत्परीषह, पिपासापरीषह, शीतपरीषह, उष्णपरीषह, दंशमशकपरीषह, नाग्न्यपरीषह, अरतिपरीषह, स्त्रीपरीषह, च-परीषह, निषद्यापरीषह, शय्यापरीषह, आक्रोशपरीषह, वधपरीषह, याचनपरीषह, अलाभपरीषह, रोगपरीषह, तृणस्पर्शपरीषह, मलपरीषह, सत्कारपुरस्कारपरीषह, प्रज्ञापरीषह, अज्ञानपरीषह, तथा अदर्शनपरीषह; ये बाईस परीषह धर्ममें विघ्नके कारण हैं; इन परीषहोंको, शास्त्रमें कहे हुए प्रयोजनोंको मनमें अनुसंधान (लक्ष्य) करके और राग-द्वेषको दूर कर सहन करना चाहिये ॥ _पञ्चानामेव कर्मप्रकृतीनामुदयादेते परीषहाः प्रादुर्भवन्ति । तद्यथा। ज्ञानावरणवेदनीयदर्शनचारित्रमोहनीयान्तरायाणामिति । ___ पांचो कर्मप्रकृतियोंके उदयसे ये परीषह ( उपद्रव वा पीड़ा अथवा कष्ट ) उत्पन्न होते हैं । पांचो कर्मप्रकृतियां क्रमसे ए हैं ज्ञानावरणीय, वेदनीय, दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, तथा अन्तराय ॥ ९॥ सूक्ष्मसंपरायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥१०॥ सूक्ष्मसंपरायसंयते छद्मस्थवीतरागसंयते च चतुर्दश परीषहा भवन्ति क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याप्रज्ञाज्ञानालाभशय्यावधरोगतृणस्पर्शमलानि । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-सूक्ष्मसंपरायसंयत, तथा छद्मस्थवीतरागसंयत गुणस्थानवीमें चौदह परीषह होते हैं; जैसे:-क्षुत्परीषह, पिपासापरीषह, शीतपरीषह, उष्णपरीषह, दंशमशकपरीषह, च-परीषह, प्रज्ञापरीषह, अज्ञानपरीषह, अलाभपरीषह, शय्यापरीषह, वधपरीषह, रोगपरीषह, तृणस्पर्शपरीषह, तथा मलपरीषह, ये चतुर्दश (चौदह १४ ) परीषह उक्त दोनो गुणस्थानोंमें होते हैं ॥ १० ॥ एकादश जिने ॥११॥ भाष्यम्--एकादश परीषहाः संभवन्ति जिने वेदनीयाश्रयाः । तद्यथा । क्षुत्पिपासाशीतो. ष्णदंशमशकचर्याशय्यावधरोगतृणस्पर्शमलपरीषहाः। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276