Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 178
________________ १५२ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् तथा साधुओंकी समाधि और वैयावृत्यकरण अर्थात् संघकी समाधि (समाधान) और साधुओंका वैयावृत्यकरण अर्थात् शरीर, वाक् तथा मनोयोग से सेवा टहल करनी । तथा अर्हत्परमर्षियोंमें, आचार्योंमें, बहुश्रुतों अर्थात् सर्वशास्त्रज्ञानसम्पन्नों में, और शास्त्रों में परमभावविशुद्धियुक्त भक्ति । और आवश्यक अर्थात् सामायिक आदिकी परमशुद्धभाव से अनुष्ठानद्वारा अपरिहाणि अर्थात् त्यागका अभाव । और सम्यग् दर्शन आदि जो मोक्षमार्ग हैं उनके अनुष्ठान तथा उपदेश आदिसे उनकी प्रभावना, अर्थात् उनकी महिमाको सबपर प्रगट करना | और अर्हत्शासनके अनुष्ठान करनेवाले श्रुतधरोंके ऊपर तथा बाल वृद्ध तपस्वी और शैक्षग्लान आदिके ऊपर संग्रह (मेल) उपग्रह (उपकार) तथा अनुग्रह आदिका जो करना है वह प्रवचनवत्सलता है । ये पूर्वोक्त सब गुण मिलित तथा पृथक् २ अर्थात् ये दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता आदि सब गुण मिलते हों वा इनमें से यथासंभव एक दो चार हों तो तीर्थकर नामकर्मका आस्रव होते हैं । अर्थात् इन गुणोंसे तीर्थकर कर्मका बंध होता है ॥ २३ ॥ परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥ २४ ॥ सूत्रार्थ — दूसरोंकी निंदा व अपनी प्रशंसा, सद्गुणोंका आच्छादन और असद्गुणों का उद्भावन अर्थात् प्रकट करना ये सब नीचैर्गोत्र ( नीचकुल ) के आस्रव होते हैं । भाष्यम्—परनिन्दात्मप्रशंसा सगुणाच्छादनमसद्गुणोद्भावनं चात्मपरोभयस्थं नीचैर्गोत्रस्यास्रवा भवन्ति ॥ विशेषव्याख्या - सर्वत्र आत्म - ( अपनी ) प्रशंसा वा अन्य पुरुषोंकी निंदा, तथा अन्यप्राणियोंमें जो उत्तम गुण विद्यमान हैं उनका तो आच्छादन करना अर्थात् छिपाना और अपने जो उत्तम गुण नहीं हैं उनको उत्तम गुण करके लोकमें प्रगट करना तथा अपने असद् अर्थात् निंद्यगुणों को गुप्त रखना, ये नीचैर्गोत्र ( नीचकुल ) में उत्पत्तिके आस्रवके हेतु हैं ॥ २४ ॥ तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य ॥ २५ ॥ 1 भाष्यम्—उत्तरस्येति सूत्रक्रमप्रामाण्यादुच्चैर्गोत्रस्याह । नीचैर्गोत्रास्रवविपर्ययो नीचैर्वृत्तिरनुत्सेको चैत्रस्यास्रवा भवन्ति ।। सूत्रार्थ - विशेषव्याख्या - नीचैर्गोत्रके जो आस्रव कहे हैं, उसके विपर्य्यय अर्थात् अपनी निंदा और दूसरोंकी प्रशंसा, दूसरोंके असद्गुणोंका गोपन और सत् (उत्तम) गुणोंका प्रकट करना, सबसे 'नीचैर्वृत्ति अर्थात् नम्रताका वर्ताव रखना, तथा अनुत्सेक अर्थात् किसीसे गर्व न करना, ये सब गुण उच्चैर्गोत्र ( उच्चकुल) में उत्पत्तिके आस्रव होते हैं ॥ २५ ॥ १ नीचैर्वृत्ति इसको कहते हैं कि - विनयप्रवण (विनयकी ओर झुकी हुई ) बाकूकायचित्तता अर्थात् मन, वचन और शरीरसे नम्र वर्ताव करना. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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