Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 204
________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् निष्टयोजनाभिलषित।लाभादीनामन्यतमेन हेतुना यस्योत्पन्नः क्रोध आमरणान्न व्ययं गच्छति जात्यन्तरानुबन्धी निरनुनयस्तीत्रानुशयोऽप्रत्यवमर्शश्च भवति स पर्वतराजिसदृशः । तादृशं क्रोधमनुमृता नरकेषूपपत्तिं प्राप्नुवन्ति । भूमिराजिसदृशो नाम । यथा भूमेर्भास्कररश्मिजालात्तस्नेहाया वाय्वभिहताया राजिरुत्पन्ना वर्षापेक्षसंरोहा परमप्रकृष्टाष्टमासस्थितिर्भवति एवं यथोक्तनिमित्तो यस्य क्रोधोऽनेकविधस्थानीयो दुरनुनयो भवति स भूमिराज - सदृशः । तादृशं क्रोधमनुमृतास्तिर्यग्योनावुपपत्तिं प्राप्नुवन्ति ।। वालुकाराजिसदृशो नाम । यथा वालुकायां काष्ठशलाकाशर्करादीनामन्यतमेन हेतुना राजिरुत्पन्ना वाय्वीरणाद्यपेक्षसंरोहार्वाग्मासस्य रोहति एवं यथोक्तनिमित्तोत्पन्नो यस्य क्रोधोऽहोरात्रं पक्षं मासं चातुर्मास्यं संवत्सरं वावतिष्ठते स वालुकाराजिसदृशो नाम क्रोधः । तादृशं क्रोधमनुमृता मनुष्येषूपपत्तिं प्राप्नुवन्ति ॥ उदकराजिसदृशो नाम । यथोदके दण्डशलाकाङ्गुल्यादीनामन्यतमेन हेतुना राजिरुत्पन्ना द्रवत्वादपामुत्पत्त्यनन्तरमेव संरोहति एवं यथोक्तनिमित्तो यस्य क्रोधो विदुषोऽ प्रमत्तस्य प्रत्यवमर्शेनोत्पत्त्यनन्तरमेव व्यपगच्छति स उदकराजिसदृशः । तादृशं क्रोधमनुमृता देवेषूपपत्तिं प्राप्नुवन्ति । येषां त्वेष चतुर्विधोऽपि न भवति ते निर्वाणं प्राप्नुवन्ति । १७८ 1 क्रोध, कोप, रोष, द्वेष, भण्डन तथा भाम ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं । इन अनेक पर्यायोंसे वाच्य कषायसंज्ञक क्रोधके तीव्र, मध्यम, विमध्यम, तथा मन्दभाव के आश्रित ये दृष्टान्त होते हैं । जैसे --- पर्वतराजिसदृश अर्थात् पर्वतके ऊपर रेखाके समान, भूमिराज (भूमिके ऊपर रेखा ) के समान, बालुकाराजिसमान, तथा जलराजिसमान । ये चार (४) दृष्टान्त हैं । इनमें से 'पर्वतराज' का यह तात्पर्य है कि - जैसे पुरुषके प्रयोगसे अर्थात् लोहेकी टांकी आदिके द्वारा, वा स्वयं किसी प्रकारसे, अथवा पुरुषके यत्न इन तीन हेतुओं में से किसी एक हेतुसे यदि पर्वतकी शिलापर रेखा उत्पन्न होगई हो तो वह कदापि नहीं नष्ट होती । ऐसे ही इष्टके वियोग, अनिष्टके संयोग तथा अभिलषित पदार्थके लाभ न होनेसे, इन तीन हेतुओंमेंसे किसी एक हेतुसे जिस पुरुषके क्रोध उत्पन्न हुआ वह यदि मरणपर्यन्त नष्ट न हो, किन्तु जन्मान्तरमें भी वह उस प्राणीके साथ ही जाय, किसी प्रकार से शान्त न हो, न दूर कियाजाय, तीव्र आशय संयुक्त, और क्षमाके अयोग्य हो वह क्रोध पर्वतराजि (रेखा) के सदृश है । इस क्रोधके पश्चात् जो जीव मृत्युको प्राप्त होते हैं वे नरकोंमें जन्म पाते हैं । तथा भूमिराजिसदृश, सूर्यके किरणों से आर्द्रता ( गीलापन ) सहित, तथा वायुसे ताडित होनेसे भूमिपर यदि रेखा उत्पन्न होगई तो वह रेखा प्रायः वर्षा कालतक रहेगी । इस हेतुसे अधिकसे भी अधिक आठ मास - पर्यन्त रेखाकी स्थिति रहेगी । ऐसे ही जिसका क्रोध पूर्वोक्त किसी हेतुसे उत्पन्न हुआ, और वह अनेक प्रकारसे स्थित होने योग्य है, अर्थात् कई वर्ष रहे, अथवा दो चार वर्ष रहे, वा एक ही वर्ष रहे, और दुःखसे दूर करने योग्य हो, वह क्रोध भूमिरेखा के समान है । और इस प्रकार के क्रोधके अनन्तर मृत्युको प्राप्त जो जीव हैं वे तिर्यग्योनियोंमें 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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