Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 212
________________ १८६ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् 1 I तथा त्यागशक्तिको सिद्ध करनेवाली जो क्रिया है उस क्रियाकी जो समाप्ति है वह भाषा - पर्याप्त है । मनस्त्व ( मन ) के योग्य ( मनोनिर्वाणके योग्य ) जो द्रव्य है उस द्रव्यके ग्रहण तथा त्यागशक्तिको सिद्ध करनेवाली जो क्रियाकी समाप्ति है वह मनःपर्याप्त है. ऐसा किन्ही आचार्यों का कथन है । यद्यपि ये सब पर्याप्तिक्रिया एकही कालमें आरम्भ की जाती हैं तथापि समाप्ति क्रमसे होती है । क्यों कि उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं । जैसे सूत्र काठ आदि काटने की क्रिया एक कालमें भी प्रारब्ध होकर क्रमशः समष्टि होती है । इनके यथासंख्य ये दृष्टान्त हैं । जैसे- गृहदलके ग्रहण में प्रथम स्तम्भ आदि आनयनक्रिया निर्वर्तन अनन्तर स्थूणा ( कड़ियों का रखना ) पुनः द्वारप्रवेश, तथा निर्गमस्थान क्रियानिर्वर्तन, और पुनः शयनादिक्रियानिर्वर्तन, ये सब क्रमसे होते हैं, ऐसे ही शरीरादि पर्याप्तिभी हैं । पर्याप्तिका साधक जो है उसको पर्याप्तिनाम कहते हैं । अपर्याप्तिका जो साधक है वह अपर्याप्तिनाम है । अपर्याप्तिनामका यह अर्थ है कि उस परिणामके योग्य दलिक (उपयोगी दलके) द्रव्यको आत्माने नहीं ग्रहण किया । स्थिरत्वका जो उत्पादक है वह स्थिरनाम है | इसके विपरीत अस्थिरनाम है । आदेय ( ग्रहणयोग्य) भावका जो साधक है वह आदेयनाम है । उसके विरुद्ध अनादेयनाम है । यथा यश (कीर्ति) का जो उत्पादक है वह यशोनाम है। उसके विपरीत अर्थात् अपयशका जो उत्पादक है वह अयशोनाम है । और जो तीर्थकरत्वको सिद्ध करनेवाला कर्म है वह तीर्थकरनाम है । उन २ भावोंको जो नाम करावे अर्थात् उन २ भावोंके प्राप्त करानेमें हेतुरूप जो है वह नाम है. इस प्रकार उत्तरभेदसहित नामकर्मभेद अनेक प्रकारका जानना चाहिये ॥ १२ ॥ उच्चैर्नीचैश्च ॥ १३ ॥ भाष्यम्—उच्चैर्गोत्रं नीचैर्गोत्रं च । तत्रोच्चैर्गोत्रं देशजातिकुलस्थान मानसत्कारैश्वर्याद्युत्कर्षनिर्वर्तकम्। विपरीतं नीचैर्गोत्रं चण्डालमुष्टिकव्याधमत्स्यबन्धदास्यादिनिर्वर्तकम् ॥ सूत्रार्थ - विशेषव्याख्या - सप्तम प्रकृतिबन्ध गोत्रकर्म है । उस गोत्रके दो भेद हैं एक उच्चैर्गोत्र, और द्वितीय नीचैर्गोत्र । उनमें उच्चैर्गोत्र जो है वह देश, जाति, कुल, स्थान, मान, सत्कार तथा ऐश्वर्यआदिकी प्रकर्षता ( उच्चता ) का साधक है । और उससे विपरीत जो है वह नीचैर्गोत्र चाण्डाल, नट, व्याध, मत्स्यबन्ध तथा दास्यआदि नीच भावोंको उत्पन्न करता है ॥ १३ ॥ दानादीनाम् ॥ १४ ॥ सूत्रार्थ - दानादिमें जो विघ्नका साधक है वह अन्तराय कर्म है ॥ १४ ॥ भाष्यम् – अन्तरायः पञ्चविधः । तद्यथा । दानस्यान्तरायः लाभस्यान्तरायः भोगस्यान्तरायः उपभोगस्यान्तरायः वीर्यान्तराय इति ॥ विशेषव्याख्या - अन्तराय पांच ( ५ ) प्रकारका है । जैसे -दानका अन्तराय, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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