Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 214
________________ १८८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नामगोत्रयोरष्टौ ॥२०॥ भाष्यम्-नामगोत्रप्रकृत्योरष्टौ मुहूर्ता अपरा स्थितिर्भवति ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-नाम तथा गोत्र, इन दोनों प्रकृतियोंकी अपरा ( हीना) स्थिति आठ (८) मुहूर्त है ॥ २० ॥ शेषाणामन्तर्मुहूर्तम् ॥ २१॥ भाष्यम्-वेदनीयनामगोत्रप्रकृतिभ्यः शेषाणां ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयायुष्कान्तरायप्रकृतीनामपरा स्थितिरन्तर्मुहूतै भवति । सूत्रार्थ--विशेषव्याख्या-पूर्वकथित प्रकृतियोंसे अर्थात् वेदनीय, नाम, तथा गोत्र, इन तीन प्रकृतियोंसे शेष जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, आयुष्क, तथा अन्तराय; इन पांच (५) प्रकृतियोंकी अपरा स्थिति अन्तर्मुहूर्त है । अर्थात् ये पांच प्रकृतियां न्यूनसे न्यून काल अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त जीवके साथ रहती हैं ॥ २१ ॥ उक्तः स्थितिबन्धः । अनुभावबन्धं वक्ष्यामः । स्थितिबन्ध जो द्वितीय भेद है उसको कहचुके, अब अनुभावबन्ध कहेंगे। विपाकोऽनुभावः॥ २२॥ सूत्रार्थ-कर्मोंके विपाकको अनुभावबन्ध कहते हैं ॥ २२ ॥ भाष्यम्-सर्वासां प्रकृतीनां फलं विपाकोदयोऽनुभावो भवति । विविधः पाको विपाकः स तथा चान्यथा चेत्यर्थः । जीवः कर्मविपाकमनुभवन् कर्मप्रत्ययमेवानाभोगवीर्यपूर्वकं कर्मसंक्रमं करोति उत्तरप्रकृतिषु सर्वासु मूलप्रकृत्यभिन्नासु न तु मूलप्रकृतिषु संक्रमो विद्यते बन्धविपाकनिमित्तान्यजातीयकत्वात् । उत्तरप्रकृतिषु च दर्शनचारित्रमोहनीययोः सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीयस्यायुष्कस्य च जात्यन्तरानुबन्धविपाकनिमित्तान्यजातीयकत्वादेव संक्रमो न विद्यते । अपवर्तनं तु सर्वासां प्रकृतीनां विद्यते । तदायुष्केण व्याख्यातम् ।। विशेषव्याख्या—सम्पूर्ण जो कर्मप्रकृति हैं उनका जो फल है, अर्थात् कर्मोंके विपाकका जो उदय है उसको अनुभवबन्ध कहते हैं । विविध अर्थात् अनेक प्रकारसे जो पाक है वह विपाक कहा जाता है । वह विपाक उस प्रकारसेभी होता है, और अन्यथाभी होता है। अर्थात् कर्मोंके फलभोगपूर्वक होता है और प्रकारान्तरसे भी होता है । जीव जो है वह कर्मोंके विपाकको अनुभव करता हुआ कर्मनिमित्त ही अनाभोगवीर्यपूर्वक कर्मका संक्रम मूल प्रकृतियोंसे अभिन्न उत्तर प्रकृतियोंमें (प्रापण ) करता है न कि-मूलप्रकृतियोंमें संक्रम है; क्योंकि बन्धविपाकके निमित्तसे वे अन्य जातीयक हैं। और उत्तर प्रकृतियोंमें भी दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय और आयुष्कप्रकृतियोंके जात्यन्तर अनुबन्ध (अन्यजातिमें भी सम्बन्ध रखनेवाले ) विपाकके कहीं २ अनुभावके स्थानमें "अनुभागबन्ध" ऐसा भी पाठ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only : www.jainelibrary.org

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