Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 176
________________ १५० रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् परिग्रह नरककी, माया तिर्यग्योनिकी और अल्पारंभ परिग्रह तथा स्वभावमृदुता आदि मनुष्यकी आयुके आस्रवके हेतु हैं ( अ० ६ सू० १६-१७-१८-) ॥ १९॥ अथ दैवस्यायुषः क आस्रव इति । अत्रोच्यते— अब कहते हैं कि दैव आयुषके आस्रवका हेतु क्या है ? | इसपर कहते हैं सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य ॥ २० ॥ सूत्रार्थ–सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा, तथा बालतप ए सब दैव आयुषके आस्रव होते हैं । भाष्यम्-संयमो विरतिर्ब्रतमित्यनर्थान्तरम् । हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतमिति वक्ष्यते ।। संयमासंयमो देशविरतिरणुव्रतमित्यनर्थान्तरम् । देशसर्वतोऽणुमहती इत्यपि वक्ष्यते || अकामनिर्जरा पराधीनतयानुरोधाच्चाकुशलनिवृत्तिराहारादिनिरोधश्च ॥ बालतपः । बालो मूढ इत्यनर्थान्तरम् । तस्य तपो बालतपः । तच्चाभिप्रवेशमरुत्प्रपातजलप्रवेशादि ॥ तदेवं सरागसंयमः संयमासंयमादीनि च दैवस्यायुष आस्रवा भवन्तीति ॥ विशेषव्याख्या—संयम अर्थात् विरति, क्योंकि संयम, विरति, व्रत ए सब एकार्थवाचक हैं | हिंसा, अनृत ( झूठ ), स्तेय ( चोरी ), अब्रह्म ( ब्रह्मचर्यका न होना ) तथा परिग्रह इनसे जो विरति ( विरक्तता वा निवृत्ति) सो व्रत है ऐसा आगे ( अ० ७ सू० १ में. ) कहेंगे, तथा संयमासंयम, देशमें विरति, अणुव्रत ए सब एकार्थवाचक हैं अतएव देश तथा 'सर्वदेशमें से हिंसादिविरति अणुव्रत तथा महात्रत होता है' यहभी ( अ० ७ सू० २ में ) आगे कहेंगे. और 'पराधीनता से अकुशल ( दुष्ट कुकर्मादि ) कर्मोंसे निवृत्ति तथा आहारका निरोध अर्थात् अपनी इच्छा न रहते भी पराधीनताके कारणसे अकुशल कार्योंसे निवृत्त रहना, तथा भोजन विषयादि सेवन न कर सकना' यह अकामनिर्जरा है । तथा बाल और मूढ भी समानार्थक हैं । उस मूढका जो तप है उसको बालतप कहते हैं । वह बालतप अग्निमें प्रवेश, महावायुका पान वा पर्वतपरसे गिरना अथवा जलमें प्रवेश करना आदि हैं । इस रीति से सरागसंयम, तथा संयमासंयमादि दैव आयुषके आस्रवके हेतु होते हैं ॥ २० ॥ अथ नाम्नः क आस्रव इति । अत्रोच्यते अब इसके पश्चात् नामकर्मका क्या आस्रव है ? | यह कहते हैं योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥ २१ ॥ भाष्यम् - कायवाङ्मनोयोगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्न आस्रवो भवतीति ॥ सूत्रार्थ — विशेषव्याख्या - काय, वाग् तथा मनोरूप जो योग है उसकी वक्रता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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