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सभाप्यतस्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥ ३ ॥
सूत्रार्थ - ये पांचो द्रव्य अर्थात् धर्म आदि चार तथा जीव नित्य अवस्थित तथा
अरूपी द्रव्य हैं ।
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भाष्यम् - एतानि द्रव्याणि नित्यानि भवन्ति । तद्भावाव्ययं नित्यमिति वक्ष्यते ॥ अवस्थितानि च । न हि कदाचित्पभ्वत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति ।। अरूपाणि च । नैषां रूपमस्तीति । रूपं मूर्तिर्मूर्त्याश्रयाश्च स्पर्शादय इति ॥
विशेषव्याख्या - धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव ये पांच नित्य द्रव्य हैं । और नित्यका लक्षण “तद्भावाव्ययं नित्यम् " अर्थात् वह वही है ऐसा प्रत्यभिज्ञानका हेतुरूप जो भाव उसको नित्य कहते । ऐसा आगे कहैंगे (अ. ५ सू. ३०) । और ये पांचों अवस्थितरूप हैं । अवस्थितरूप इसका यह अभिप्राय है कि अपनी पञ्चत्वसङ्ख्या तथा नित्यरूप भूतार्थताको कभीभी नहीं त्यागते । और 'अरूपाणि' इसका यह तात्पर्य है कि धर्म अधर्म आदि द्रव्योंमें कोई श्वेतनीलपीतादि रूप वा वर्ण नहीं है । रूप (मूर्ति) अर्थात् विग्रह और मूर्तिके आश्रयीभूत स्पर्श रस आदिभी इनमें नहीं हैं ॥ ३ ॥ रूपिणः पुद्गलाः ॥ ४ ॥
सूत्रार्थ — पुद्गल रूपी हैं ।
भाष्यम् - पुद्गला एव रूपिणो भवन्ति । रूपमेषामस्त्येषु वास्तीति रूपिणः ॥ विशेषव्याख्या – इन पांचोंमें पुद्गलही रूपी द्रव्य हैं । जिनके रूप है वा जिनमें रूप है वे रूपी हैं ॥ ४ ॥
आकाशादेकद्रव्याणि ॥ ५ ॥
सूत्रार्थ - धर्मसे लेकर आकाशपर्यन्त एक द्रव्य हैं ।
भाष्यम् – आ आकाशाद्धर्मादीन्येकद्रव्याण्येव भवन्ति । पुद्गलजीवास्त्वनेकद्रव्याणीति ॥ विशेषव्याख्या—धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों एक २ द्रव्य हैं, अर्थात् धर्म अधर्म आकाश इनके अनेक भेद नहीं हैं किन्तु ये एकही एक हैं । और, पुद्गल तथा जीव ये तो अनेक द्रव्य हैं अर्थात् इन दोनोंके अनेक भेद हैं ॥ ५ ॥
निष्क्रियाणि च ॥ ६ ॥
सूत्रार्थ - धर्मसे लेकर आकाशपर्यन्त द्रव्य निष्क्रिय भी हैं ।
भाष्यम् – आ आकाशादेव धर्मादीनि निष्क्रियाणि भवन्ति । पुद्गलजीवास्तु क्रियावन्तः । क्रियेति गतिकर्माह ||
१ "आ आकाशादेकरूपाणि " कहीं २ ऐसाभी सूत्रपाठ है. यहां प्रथम आ शब्द अभिव्याप्ति ( पर्यन्त) रूप अर्थका बोधक है । 'आकाशा०' इस पाठ में भी आकाशके पूर्व 'आ' पद है परन्तु दीर्घ रूप सन्धि हो गई है ।
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