Book Title: Pravachansara Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

Previous | Next

Page 41
________________ 22. णत्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स। अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स।। नहीं है णत्थि परोक्खं किंचि परोक्ष समंत (समंता) सव्वक्खगुणसमिद्धस्स अक्खातीदस्स अव्यय (परोक्ख) 1/1 अव्यय कुछ . अव्यय अव्यय चारों तरफ से [(सव्व)+ (अक्खगुणसमिद्धस्स)] [(सव्व) सवि-(अक्ख) . समस्त इन्द्रिय-गुणों . (गुण)-(समिद्ध) 6/1 वि] से सम्पन्न होने के कारण (अक्खातीद) 6/1 वि इन्द्रियातीत होने के कारण अव्यय [(सयं)+ (एव)] सयं (अ)= स्वयं स्वयं एव (अ)= ही अव्यय निश्चय ही [(णाण)-(जाद) ज्ञान में टिका हुआ भूक 6/1] होने के कारण सदा .. . सदा सयमेव णाणजादस्स अन्वय- सदा अक्खातीदस्स समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स सयमेव णाणजादस्स हि किंचि वि परोक्खं णत्थि। अर्थ- सदा इन्द्रियातीत होने के कारण, चारों तरफ से समस्त इन्द्रियगुणों से सम्पन्न होने के कारण (और) स्वयं ही ज्ञान में टिके हुए होने के कारण निश्चय ही (केवलीभगवान के लिए) कुछ भी परोक्ष नहीं है। 1. यहाँ पाठ समंता होना चाहिये तभी छन्द पूर्ण होता है। कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) (34) प्रवचनसार (खण्ड-1) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168