Book Title: Pravachansara Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 40
________________ 21. परिणमदो खलु णाणं पच्चक्खा सव्वदव्वपज्जाया सो न परिणमदो खलु णाणं पच्चक्खा सव्वदव्वपज्जाया । सो व ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं । । व विजाणदि उगहपुव्वाहिं किरिया हिं 1. 2. (परिणामदो '→ परिणमदो ) (अ) स्वभाव से पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय अव्यय ( णाण) 2 / 1 (पच्चक्ख) 1/2 वि [(सव्व) सवि - (दव्व) (पज्जा ) 1 / 2 ] (त) 1/1 सवि अव्यय (त) 2/2 सवि (विजाण) व 3 / 1 सक [ ( उग्गह) - ( पुव्व ) 3 / 2 वि] (किरिया) 3/2 प्रवचनसार (खण्ड-1 -1) Jain Education International अन्वय- परिणमदो खलु णाणं सव्वदव्वपज्जाया पच्चक्खा सो ते उग्गहपुव्वाहिं किरियाहि णेव विजाणदि । अर्थ- स्वभाव से ही ज्ञान (केवलज्ञान) में समस्त द्रव्य-पर्यायें प्रत्यक्ष (हैं)। वे (केवली भगवान) उनको अवग्रह से युक्त क्रियाओं से नहीं जानते हैं। (सामान्यतः अवग्रह पूर्वक ही ईहा, अवाय और धारणा क्रियायें होती हैं, किन्तु केवली भगवान के इन क्रियाओं का अभाव होता है ) । ही ज्ञान में प्रत्यक्ष समस्त द्रव्य पर्यायें वह नहीं उनको यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'परिणाम' का 'परिणम' किया गया है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम-प्राकृत - व्याकरणः 3-137) For Personal & Private Use Only जानता है अवग्रह से युक्त क्रियाओं से (33) www.jainelibrary.org

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