________________
77. ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं।
हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो।।
मण्णदि
नहीं पादपूरक मानता है जो इस प्रकार नहीं है
एवं णत्थि विसेसो त्ति
भेद
अव्यय अव्यय (मण्ण) व 3/1 सक (ज) 1/1 सवि अव्यय अव्यय [(विसेसो)+(इति)] विसेसो (विसेस) 1/1 इति (अ) = पादपूरक [(पुण्ण)-(पाव) 6/2] (हिंड) व 3/1 सक [(घोरं)+ (अपारं)] घोरं (घोर) 2/1 वि अपारं (अपार) 2/1 वि (संसार) 2/1 [(मोह)-(संछण्ण) भूक 1/1 अनि]
पुण्णपावाणं हिंडदि घोरमपारं
पादपूरक पुण्य और पाप में परिभ्रमण करता है
संसारं मोहसंछण्णो .
भयानक अनन्त संसार में आत्मविस्मृति/ देहतादात्म्यभाव से पूर्णतः ढंका हुआ ।
अन्वय- पुण्णपावाणं विसेसोत्ति हि णत्थि जो एवं ण मण्णदि मोहसंछण्णो घोरमपारं संसारं हिंडदि।
अर्थ- पुण्य और पाप में भेद नही (होता) है, जो इस प्रकार नहीं मानता है, (वह) आत्मविस्मृति/देहतादात्म्यभाव से पूर्णतः ढंका हुआ अनन्त (दुःखदायी) भयानक संसार में परिभ्रमण करता है।
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) 2. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। .
(हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) या गत्यार्थक क्रिया के योग में द्वितीया भी होती है।
प्रवचनसार (खण्ड-1)
(89)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org