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89.
णाणप्पगमप्पाणं
परं
च
णाणप्पगमप्पाणं परं च दव्वत्तणाहिसंबद्धं । जाणदि जदि णिच्छयदो जो सो मोहक्खयं कुणदि । ।
दव्वत्तणाहिसंबद्धं
जादि
दि
णिच्छयदो
जो
सो
मोहक्खयं
कुणदि
प्रवचनसार ( खण्ड - 1 )
[(णाणप्पगं) + (अप्पाणं) ]
णाणप्पगं (णाणप्पग) 2 / 1 वि ज्ञानस्वरूप
स्व को
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अप्पाणं ( अप्पाण) 2/1
(पर) 2/1 वि
अव्यय
[(दव्वत्तण) + (अहिसंबद्ध) ] [ ( दव्वत्तण) - (अहिसंबद्ध)
2/1 fa]
(जाण) व 3 / 1 सक
अव्यय
( णिच्छयद्रो) अव्यय
पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय
(ज) 1 / 1 सवि
(त) 1/1 सवि
[ ( मोह) - (क्खय) 2 / 1] (कुण) व 3/1 सक
पर को
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और
द्रव्यता से जुड़ा हुआ
अन्वय-जदि जो णिच्छयदो परं च णाणप्पगमप्पाणं दव्वत्तणाहिसंबद्धं जादि सो मोहक्खयं कुणदि ।
अर्थ- यदि जो (आत्मा) निश्चयपूर्वक पर को और ज्ञानस्वरूप स्व को द्रव्यता से जुड़ा हुआ जानता है (तो) वह मोह (आत्मविस्मृति) का विनाश करता है।
जानता है
यदि
निश्चयपूर्वक
जो
वह
मोह का विनाश
करता है
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