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71. सोक्खं सहावसिद्धं णत्थि सुराणं पि सिद्धमुवदेसे।
ते देहवेदणट्टा रमति विसएसु रम्मेसु।।
सोक्खं सहावसिद्ध
णत्थि
सुराणं
सिद्धमुवदेसे
(सोक्ख) 1/1
सुख [(सहाव)-(सिद्ध)
स्वभाव से भूकृ 1/1 अनि]
निष्पन्न (उत्पन्न) अव्यय
नहीं है (सुर) 6/2
देवताओं के अव्यय [(सिद्धं)+(उवदेसे)] सिद्धं (सिद्ध) भूकृ 1/1 अनि प्रमाणित उवदेसे (उवदेस) 7/1
उपदेश से (त) 1/2 सवि । [(देहवेदण)+(अट्टा)] [(देह)-(वेदणा-वेदण)- शरीर के संताप से (अट्ट) भूकृ 1/2 अनि] पीड़ित " (रम) व 3/2 अक रमण करते हैं (विसय) 7/2
विषयों में . (रम्म) 7/2 वि
रमणीय
देहवेदणट्टा
रमंति . विसएसु रम्मेसु
अन्वय- उवदेसे सिद्धं सुराणं पि सहावसिद्धं सोक्खं णत्थि ते देहवेदणट्टा रम्मेसु विसएसु रमंति।
अर्थ- (जिनेन्द्रदेव के) उपदेश से (यह) प्रमाणित है (कि) देवताओं के भी (मूल) स्वभाव से निष्पन्न (उत्पन्न) सुख नहीं है। (चूँकि) वे शरीर के संताप से पीड़ित (रहते हैं) (इसलिये) रमणीय विषयों में रमण करते हैं।
1.
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-135) यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'वेदणा' के स्थान पर 'वेदण' किया गया है।
2.
प्रवचनसार (खण्ड-1)
(83)
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