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51. तिक्कालणिच्चविसमं सयलं सव्वत्थ संभवं चित्तं।
जुगवं जाणदि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं ।।
सव्वत्थ
संभवं
तिक्कालणिच्चविसमं [(तिक्काल)-(णिच्च) वि- तीन काल में
(विसम) 2/1 वि] चिरस्थायी, असमान सयलं (सयल) 2/1 वि
समस्त अव्यय
सभी जगह (संभव) 2/1 . संभव चित्तं (चित्त) 2/1 वि
नाना प्रकार के जुगवं अव्यय
एक ही साथ जाणदि (जाण) व 3/1 सक जानता है जोण्हं
(जोण्ह) 1/1 वि दिव्य (ज्ञान) अव्यय
आश्चर्य है! अव्यय णाणस्स (णाण) 6/1
ज्ञान की माहप्पं
(माहप्प) 1/1 . महिमा
अहो
अन्वय- अहो जोण्हं तिक्कालणिच्चविसमं सव्वत्थ संभवं चित्तं सयलं जुगवं जाणदि णाणस्स हि माहप्पं।।
अर्थ- आश्चर्य है! दिव्य (ज्ञान)- तीन काल में चिरस्थायी, असमान, सभी जगह संभव (उत्पन्न), नाना प्रकार के समस्त (पदार्थों को) एक ही साथ जानता है। (यह) (दिव्य) ज्ञान की ही महिमा (है)।
प्रवचनसार (खण्ड-1)
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