Book Title: Prakrit Vyakaran
Author(s): Madhusudan Prasad Mishra
Publisher: Chaukhambha Vidyabhavan

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Page 6
________________ ( ४ ) मैं पड़ा हुआ रहता है, किन्तु जब उसे संस्कारों द्वारा काट, छाँट एवं खराद कर मेज, कुर्सी आदि बनाते हैं तो वही अपना संस्कृत रूप धारण कर लेता है । इसी प्रकार जो अपरिष्कृत भाषा अपनी प्राकृतिक अवस्था में पड़ी हुई जनसाधारण द्वारा उच्चरित होती थी, वही प्राकृत थी और उसी की शुद्ध एवं परिष्कृत आकृति संस्कृत भाषा कही जाने लगी । इसके प्रमाण में इनका कहना है कि यदि प्राकृत संस्कृत से निकली हुई होती तो उसके कुल शब्द संस्कृत से सिद्ध हो जाते, किन्तु अनुसन्धान द्वारा विदित होता है कि सिद्ध होते नहीं हैं । इसलिए प्राकृत की उत्पत्ति केवल संस्कृत से मानना युक्तिसङ्गत नहीं । पिशल के इसी मत का समर्थन सभी पश्चिमी विद्वान् करते हैं । I पाली भी प्राकृत के अन्दर ही मानी जाती है । इसे 'प्राचीन प्राकृत' कहते हैं । भगवान् बुद्ध ने इसी भाषा में अपने धर्म का प्रचार किया था । आजकल बौद्धों के धार्मिक ग्रन्थ तथा अनेक शिला लेख आदि भी इसी भाषा में पाये जाते हैं । पाली और प्राकृत में कुछ अन्तर पड़ गया है, इसलिए अब पाली को अन्य भाषा मानते हैं और प्राकृत कहने से पाली को अलग समझते हैं । प्राकृत के वैयाकरणों तथा अलङ्कार - शास्त्रज्ञों ने पाली को पृथक् मान कर प्राकृत - व्याकरण आदि लिखते समय इसका कुछ भी उल्लेख नहीं किया है । प्राकृत के भेदों में 'महाराष्ट्री' उत्तम तथा प्रधान प्राकृत के रूप में समझी जाती है । दण्डी ने 'काव्यादर्श' के प्रथम परिच्छेद के चौंतीसवें श्लोक में लिखा है - 'महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः ।' अर्थात् महाराष्ट्री भाषा श्रेष्ठ प्राकृत समझी जाती है । कतिपय भारतीय विद्वानों ने प्राकृत शब्द का प्रयोग केवल महाराष्ट्री ही के लिए किया है । जैसे हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत के व्याकरण में महाराष्ट्री के लिए प्राकृत शब्द का प्रयोग किया है ! 'शेषं प्राकृतवत्' (हेम० ४ - २८६ ) । प्राकृत के व्याकरण ग्रन्थों में महाराष्ट्री को ही प्रधानता दी गई है । वररुचि ने नव परिच्छेदों

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