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(8) श्री शीतलनाथ जिन स्तवन शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी, मुजथी कहीय न जायजी; अनंतता निर्मलता पूर्णता, ज्ञान विना न जणायजी, शी० १ चरम जलधि जल मिणे अंजलि, गति जीपे अति वायजी; सर्व आकाश उल्लंघे चरणे, पण प्रभुता न गणायजी, शी० २ सर्व द्रव्य प्रदेश अनंता, तेहथी गुण पर्यायजी; तास वर्गथी अनंतगणुं प्रभु, केवलज्ञान कहायजी, शी० ३ केवल दर्शन एम अनंतु, ग्रहे सामान्य स्वभावजी; स्वपर अनंतथी चरण अनंतु, समरण संवर भावजी, शी० ४ द्रव्य क्षेत्र ने काळ भाव गुण, राजनीति ए चारजी; त्रास विना जड चेतन प्रभुनी, कोई न लोपे कारजी शी० ५ शुद्धाशय थिर प्रभु उपयोगे, जे समरे प्रभु नामजी; अव्याबाध अनंतुं पामे, परम अमृत सुख धामजी, शी० ६ आणा ईश्वरता निर्भयता, निर्वांछकता रूपजी; भाव स्वाधीन ते अव्यय रीते, इम अनंतगुण भूपजी, शी० ७ अव्याबाध सुख निर्मल ते तो, करण ज्ञाने न जणायजी, तेहज एहनो जाणग भोक्ता, जे तुम सम गुणरायजी, शी० ८ इम अनंत दानादिक निज गुण, वचनातीत पंडुरजी; वासन भासन भावे दुर्लभ, प्राप्ति तो अति दूरजी, शी० ६ सकळ प्रत्यक्षपणे त्रिभुवन गुरु, जाणुं तुज गुणग्रामजी; बीजुं कांई न मांगु स्वामी, एहि ज छे मुज कामजी, शी० १० इम अनंत प्रभुता सदृहतां, अरचे जे प्रभु रूपजी; देवचंद्र प्रभु प्रभुता ते पामे, परमानंद स्वरूपजी, शी० ११
(9) श्री शीतलनाथ जिन स्तवन (सनेही संत ए गिरि सेवो) ___ शीतलजिन सहजानंदी, थयो मोहनी कर्म निकंदी। परजायी बुद्धि निवारी पारिणामिक भाव समारी,। मनोहर मित्र ए प्रभु सेवो, दुनियामां देव न एहवो,। म० १ वर केवलनाण विभासी,। अज्ञान तिमिर भर नाशी, जयो लोकालोक प्रकाशी, गुण पज्जव वस्तु विलासी। म० २ अक्षय थिति अव्याबाध, दानादिक लब्धि अगाध । जेह शाश्वत सुखनो स्वामी, जड इन्द्रिय भोग विरामी,। म० ३ जेह देवनो देव कहावे, योगीश्वर जेहने ध्यावे,। जस आणा सुरतरू वेली, मुनि हृदय आरामे फेली। म० ४ जेहनी शीतलता संगे, सुख प्रगटे अंगो अंगे। क्रोधादिक ताप समावे,। जिन विजयानंद सभावे । म० ५