Book Title: Prachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Author(s): Dinmanishreeji
Publisher: Dhanesh Pukhrajji Sakaria

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Page 590
________________ 541 बोधीओजी, उपसर्ग सही अत्यंत. चउ० ॥४॥ मुहूर्त मात्र निद्रा लहेजी, सुहणां दश देखंत; उत्पल नाम नीमीत्तीयोजी, अर्थ कहे अम तंत. चउ० ॥५॥ ताल पीशाच हण्यो जे पहेलो, ते हणशो तुमे मोह; शीत पंखी दल ध्यायसोजी, शुक्लध्यान अक्षोभ. चउ० ॥६॥ विचित्र पंखी पेखीओजी, ते कहेशो दुवालस अंग; गोवर्ग सेवित फल थापशोजी, अनोपम चउविह संघ चउ० ॥७॥ चउविध सुर सेवित हशोजी, पद्म सरोवर दीठ; मेरु आरोहणथी होयसेजी, सुर सिंहासन इठ. चउ० ॥८॥ जे सुरज मंडळ देखीयुंजी, ते होशे केवल नाण; मानुषोत्तर अंतर वीटीयोजी, ते जगकीर्ति मंडाण. चउ० ॥६।। जलधि तरण फळ ओ होंशेजी, ते तरशो संसार; युग माल फळ नवी लहुंजी, ते कहो करी उपगार. चउ० ।।१०।। कहे प्रभु ते फल तेहवोजी, धर्म दुविध कहुं संत; प्रथम चोमासुं तिहां करीजी, विचरे समतावंत. चउ० ॥११॥ उतरतां गंगा नदीजी, सुरकृत सहे उपसर्ग; संबल कंबले वारीओजी, पूर्व भवे गोवर्ग. चउ० ॥१२॥ चडकोशियो सुर कीयोजी, पूर्वे भिक्षु चारित्र; सींची नयनसुं ध्यान धरेजी; हवे मल्यो ब्राह्मण पुत्र. चउ० ॥१४।। संगम सुर अधमे को जी, बहु उपसर्ग सहंत; देश अनारज संचर्याजी, जाणी करम महंत. चउ० ॥१५॥ व्यंतरीकृत सहे शीतथीजी, लोकावधि लहे नाण; पूर्व कृत कर्मे नड्यांजी, जेहनां नही परमाण. चउ० ।।१६।। चमरो शरणे राखीओजी, सुसुमार पुरी धरी ध्यान; अनुक्रमे चंदन बालिकाजी, प्रतिलाभे भगवान. चउ० ॥१७|| काने खीला घालीयाजी, गोप करे घोर कर्म; वैद्ये तो वली उगारीयाजी, सही वेदन अति मर्म. चउ० ॥१८॥ साडा बार वरस लगेजी, कर्म कर्या सवी जेर; चउविहार तप जाणवोजी, नीत काउस्सग्ग जीम मेर. चउ० ।।१६।। हवे तप संकलना कहुंजी, जे कीधा जिनराय; बेठा ते कदीओ नहीजी, गाय दुहीकासन काय. चउ० ॥२०॥ (51) चंपा श्राविकानी सज्झाय वासी दिल्ही रे नयरना, थानसिंग मानसिंग रिद्ध रे; माता चंपादे तेहनी, तपस्या छ मासी कीध रे. थें मन मोह्यो गुरु हीरजी. ॥१॥ अक दिन फुलेको निसर्यो, बाई चंपादे मात रे; साहमी अवसारी आवीयो, अकबर शाह सुगात रे. थें० ॥२॥ पूछे ओ कौन लोक छे. श्यो छे ?

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