Book Title: Prachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Author(s): Dinmanishreeji
Publisher: Dhanesh Pukhrajji Sakaria

View full book text
Previous | Next

Page 592
________________ 543 धर्मना, वहोरे श्री गच्छराय रे; शाह वचनथी रे वहोरीयां, पुस्तक श्री श्रुत राज रे. थें० ॥२३॥ आग्रा शहेरना संघने, उपदेश्यो सूरिराय रे; प्रथम चोमासुंजी तिहां रह्यां, जाणी धर्म सनेह रे. थें० ॥२४॥ आग्रा नगर भंडारमें, पुस्तक ठवीयां छे ओह रे; दीपविजय कविराज जी, हीर सूरि महाराज रे. थे० ॥२५॥ (52) तपगच्छ नभोमणि परमपूज्य पं० मणिविजयजीना शिष्यरत्न ज्योतिषशिरोमणी पद्मवि० म०नी सज्झाय देव समा गुरु पद्मविजयजी, सबही गुणे पुरा, शुद्ध प्ररूपक समता धारी, कोई वाते नही अधुरा; मुनिवर लीजे वंदना हमारी, गुरू दर्शन सुखकारी। मुनि० १ संवत अढार छासठनी साले, ओसवाल कुळे आव्या; गाम भरूडीए शुभ लग्ने, माता रूपाबाई जाया। मुनि० २ सत्तर वर्षना रवि गुरु पासे; हुआ यति वेषधारी; गुरू विनये गीतारथ थया, चंद्र जेसा शीतल कारी। मुनि० ३ संवत ओगणीश अगियारसनी साले, संवेग रसगुण पीधो; रूपे रूडा ज्ञाने पुरा, जिन शासन डंको दीधो। मनि० ४ संवत ओगणी चोवीसनी साले, छेदोपस्थान कीधो; महाराज मणिविजय नामनो, वासक्षेप शीर लीधो। मुनि० ५ दिनदिन अधिक संवेग रंगे, काम कषाय निवारी; धर्म उपदेशे बहु जीव तारी, ज्ञान क्रिया गुण धारी। मुनि० ६ संवत ओगणीसो साडत्रीस, वैसाख सुदी अगियारस राते; गामे पलासवां काल धर्म कीधो, जीन नमे नित्य प्रते। मुनि० ७ (53) प० पू० जीतविजयजी महाराज० सा० (दादागुरुदेवश्री)नी० सज्झाय समतां गुणे करी शोभतां रे, जीत विजयजी महाराय; तेहना गुणो गातां थकां रे, आतम निर्मल थाय रे भवियण वंदो मुनिवर एह, जेम थाये भवोदधि छेह रे भ०॥१॥ कच्छ देशमां दींपतु रे, मनफरा नामे गाम; भविक कज विकासतुं रे, जीहां शांति जिन धाम रे भ०॥२॥ संवत अढार छर्नु ए रे, एम उज्वल बीज सार; माता अवलबाइए जनमीयां रे, वो जयजयकार रे भ०॥३॥ बार वर्षना जब थया रे, नेत्र पीडा तब थाय; सोळ वर्षनी

Loading...

Page Navigation
1 ... 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634