Book Title: Prachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Author(s): Dinmanishreeji
Publisher: Dhanesh Pukhrajji Sakaria
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वधारो स्वाति थकी परहुं रे, तो भस्मग्रह सघलो दूरे जाय रे. वी० ॥७५।। शासन शोभा अधिकी वाधश्येरे, सुखीया होशे मुनिवरना वृंद रे; संघ सयलने सवि सुख संपदा रे, होशे दिनदिनथी परमानंद रे. वी० ॥७६।। इंदा न कदारे कहीओ केहy रे, केणे सांध्यं नवि जाओ आय रे; भावी पदारथ भावे निपजे रे, जे जिम सरज्यो ते तिम थाय रे. वी० ॥७७॥ सोल पहोरनी देतां देशना रे, परधानक नामा रुअडझे अज्झयण रे; कहेता कार्तिक वदि कहुं परगडी रे, वीरजी पोहोता पंचमी गति रयण रे. वी० ॥७८॥ ज्ञान दीवो रे जब दूरे थयो रे, तव देवे कीधी दीवानी श्रेणी रे; तिमरे चिहुं वरणे दीवा कीधलां रे, दिवाली कहीये छे कारण तेण रे. वी० ॥७६। आंसु परिपूर्ण नयण आंखलडे रे, मूकी चंदननी चेहमां अंग रे; दीधो देवे दहन सघले मीली रे, हा धिग् धिग् संसार विरंग रे. वी० ॥८॥
(ढा. ६) वंदे शुं वेगे जइ वीरो, इम गौतम गह गहता; मारगे आवता सांभलीउं, वीर मुगति मांहे पोहता रे. जिनजी तुं निस्नेही मोटो, अविहड प्रेम हतो तुज उपरे, ते तो कीधो; खोटो रे. जिनजी तुं० ॥१॥ है है वीर कर्यो अणघटतो, मुज मोकलीओ गामे; रे अंत काले बेठां तुज पासे, हुं श्ये नावत कामे रे. जि० ॥२॥ चौद सहस मुज सरिखा ताहरे, तुज सरिखो मुज तुहि; विधासी वीरे छेतरीओ, ते स्यां अवगुण मुंहि रे. जि० ॥८३।। को केहने छेहडे नवी वलगे, जो मिलतो होओ सबलो; रे मिलतास्युं जेणे चित्त चोर्यो, ते तिणे निर्बलो रे. जि० ॥४॥ निठुर हैडा शुं नेह न कीजे, निसनेही नर निरखी; हैडा हेजे मिले जिहां हरखी, ते प्रीतलडी सरिखी रे. जि० ॥५॥ तें मुजने मनडो नवी दीधो, मुज मनडो ते लीधो रे; आप सवारथ सघलो कीधो, मुगति जइने सिद्धो रे. जि० ॥८६।। आज लगे तुज मुज शुं अंतर, सुपनांतर नवि हुं तो रे; हैडा हेजे हियाली छंडी, मुजने मूक्यो रोवंतो रे. जि० ॥८७|| को केहशुं बहु प्रेम म करस्यो, प्रेम विडंबण विरुइ रे; प्रेमे परवश जे दुःख पामे, ते कथा घणी गिरुइ रे. जि० ॥८८|| निसनेही सुखीया रहे सघल, ससनेही दुःख देखे रे, तेल दुग्ध परे परनी पीडा, पामे नेह विशेषे रे. जि० ॥८६॥ समवसरण कहीजे हवे होशे, कहो कुण नयणें जोशे; रे दया धेनु पुरी कण दोहस्ये, वृष दधि कुण

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