Book Title: Prachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Author(s): Dinmanishreeji
Publisher: Dhanesh Pukhrajji Sakaria
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(प्रथम स्तुति जोडो) इंद्रभूति अनुपम गुण भर्या, जै गौतम गोत्रे अलंकर्या; पंचशत छात्रशुं परिवर्यां, वीर चरण लही भवजल तर्या. ॥१॥ चउ अड दश दोय जिनने स्तवे, दक्षिण पश्चिम उत्तर पूरवे; संभव आदि अष्टापद गिरिये वली, जे गौतम वंदे लळीलळी. ॥२॥ त्रिपदी पामीने जेणे करी, द्वादशांगी सकल गुणे भरी; दीये दीक्षा ते लहे केवल सिरि. ते गौतमने रहुं अनुसरी. ॥३॥ जक्ष मातंग ने सिद्धाइका, सूरि शासननी प्रभाविका; श्री ज्ञान विमल दिपालिका, करो नित्य नित्य मंगल मालिका. ॥४॥
(द्वितीय स्तुति जोडो) श्री इंद्रभूतिं गण वृद्धि भूति, श्री वीर तीर्था धि प मुख्य शिष्यम्; सुवर्ण कांतिं कृत कर्म शांति, नमाम्यहं गौतम गोत्र रत्नम् ॥१॥ तीर्थंकरा धर्म धुरिणां, ये भूत-भावी-प्रति वर्तमानां; सत् पंच कल्याणक वासरस्था, दीशंतु ते मंगल मालिकां च. ॥२॥ जिनेंद्र वाक्यं प्रथित प्रभावं, कर्माष्ट कानेक प्रभेद सिहम्; आराधितं शुद्ध मुनिंद्र वर्गे, र्जगत्य मेवं जयतात् नितांतम्. ॥३॥ सम्यग्दशां विध्नहरा भवंतु, मातंगयक्षाः सुरनायकाश्च; दिपालिका पर्वणि सुप्रसन्ना, श्रीज्ञानसूरि वरदायकाश्च. ॥४॥
(वीरजिन स्तवन) वीर मधुरी वाणी भाखे, जलधिजल गंभीर रे; इंद्रभूति चित्त भ्रांति रजकण, हरण प्रवर समीर रे. वी० ॥१॥ पंच भूत थकीज प्रगटे, चेतना विज्ञान रे; तेहमां लयलिन थाये, न परभव संज्ञान रे. वी० ॥२॥ वेद पदनो अर्थ अहवो, करे मिथ्या रुप रे; विज्ञान घन पद वेद केरां, तेहगें अह स्वरुप रे. वी० ॥३॥ चेतना विज्ञान घन छे, ज्ञान दर्शन उपयोग रे; पंच भूतिक ज्ञान मय ते, होय वस्तु संयोग रे. वी० ॥४॥ जिहां जेहवी वस्तु देखीये, होय तेहबुं ज्ञान रे; पूरव ज्ञान विपर्ययथी, होय उत्तम ज्ञान रे. वी० ॥५॥ अह अर्थ समर्थ जाणी, मभण पद विपरीत रे; इणीपेरे भ्रांति निरा करीने, थया शिष्य विनीत रे. वी० ॥६।। दिपालिका प्रभाते केवल, लयुं ते गौतम स्वाम रे; अनुक्रमे शिव सुख लह्या, तेहने, नय करे प्रणाम रे. वी० ॥७॥
(तृतिय चैत्यवंदन) जीव केरो जीवकेरो, अछे मनमांही, संशय वेद पदे करी, कही अर्थ अभिमान वार्यो, ॥१॥ श्री महावीर सेवा करी, ग्रही संयम

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