Book Title: Prachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Author(s): Dinmanishreeji
Publisher: Dhanesh Pukhrajji Sakaria
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वेगे लीधा रे; कार्तिक काली चउदशे, जिन मुखे पच्चखाण किधारे; राय अढार प्रमुख घणे, जिनपगे वांदणा दिधारे; जिन वचनामृत तिहां घणे, भवियणे घट घट पीधां रे ।।२०।।
(ढाल त्रीजी) श्री जगदीश दयाल दुःख दूरे करे रे, कृपा कोडि तुज जोडी; जगमां रे जगमां रे कहीए केहने वीरजी रे०।२१।। जगजनने कुण देशे एवी देशना रे, जाणी निज निरंवाण; नवरस रे नवरस रे सोल पहोर दिये देशना रे०॥२२॥ प्रबल पुन्य फल संशुचक सोहामणां रे अज्झयणां पण पन्न, कहीयां रे कहीयां रे, महिया सुख सांभलि होए रे॥२३॥ प्रबल पाप फल अज्झयणा तिम तेटलां रे, अण पुंछ्या छत्रीस; सुणतां रे सुणतां रे भणतां सवि सुख संपजे रे पुण्यपालराजा तिहा धर्म कथांतरे रे कहो प्रभु प्रत्यक्षदेव, मुजने रे मुजने रे सुपन अर्थ सवी साचलो रे०॥२४॥ गज वानर खीर द्रुम वायस सिंह घडो रे, कमल बीज इम आठ; देखी रे देखी रे सुपन समय मुझ मन हुओ रे०॥२६।। उखर बीज कमल अस्थानके सिंहगें रे, जीव रहित शरीर; सोवन रे सोवन रे कुंभ मलीन ए शुं घटे रे०।२७।। वीर भणे भूपाल सुणो मन थीर करी रे सुमिण अर्थ सुविचार; हैडे रे हैडे रे धरज्यो धर्म धुरंधरु रे०॥२८॥

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