Book Title: Prachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Author(s): Dinmanishreeji
Publisher: Dhanesh Pukhrajji Sakaria

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Page 619
________________ 570 मयणा ने श्रीपाळ, जि० दंपति नव पद सेवतां रे, पाम्या नवमुं स्वर्ग, जि० आत्म अनुभव ज्ञानथी रे, भक्त लहे अपवर्ग. जि० ७ (ढा. ६) (राग :--रघुपति राघव राजा राम) सेवो रे भविजन भक्ति भाव, ध्यावो रे सिद्धचक्र मन उमाय; आसो मासे चैत्र उमंग, कीजे ओळी नव अभंग. भ० १ उभय टंक पडिक्कमणुं जाण, देव वंदन पूजा त्रण काळ; केसर चंदन मृग मद सार, पूजा रचावो थई उजमाळ. भ० २ मंगळ दीवो आरती सार, अक्षत फळादिक नैवेध सार; चउद पूर्वनो जे छे सार, तेणे कारण समरो नवकार. भ० ३ ओ सिद्धचक्रनी भक्ति नित्य, नव पद जाप जपो ओकांत; जपता नवपद मयणा श्रीपाळ, उंबर रोग गयो तत्काळ भ० ४ सातसो महीपति नमण प्रभाव, देही पाम्यां कंचनवान, भ० बांधी संपदा जग जस नूर, पाम्या मुक्ति सुख भरपूर. भ० ५ (ढा. ७) (दशी मन मोहन मेरे) श्री सिद्धचक्र सेवा करो मन मोहन मेरे, जे छे परम दयाळ मन मोहन मेरे, अलिय विघन दूरे करे मन मोहन मेरे, उतारे भवपार रे मन मोहन मेरे, १ आसो सुदि सातम दिने, मन० कीजे ओळी उदार, मन मोहन मेरे. उभयटंक काउसग्ग करो मन मोहन मेरे. तजी विषय प्रमाद मन मोहन मेरे २ केशर चंदन घसी घणां मन मोहन मेरे पूजा रचो श्रीकार मन मोहन मेरे, धान्य फळादिक ढोइ ओ मन मोहन मेरे फूल पगर भराव रे मन मोहन मेरे, ३ श्री सिद्ध-चक्र भक्ति करे मन मोहन० मयणा ने श्रीपाळ मन मोहन० देववंदन काउस्सग करो मन० पूरव भव अभ्यास मन० ओम नवपद विधि साचवे मन० चार वर्ष षट्मास मन० दंपति नव पद सेवतां मन० लहे मुक्ति सुखवास, मन० (ढा. ८) (राग--सिद्धचक्र पद वंदो) आसो चैतर मासे करो, ओळी मन उल्लासे रे; भविया श्री सिद्धचक्र आराधो, पूर्व दिशि अरिहंत श्वेत, बार गुणे सोहंत रे भविया, श्री सिद्धचक्र आराधो० १ मध्य भागे सिद्धराज सोहे, रकत वर्ण गुण आठ रे; भ० श्री सि० दक्षिणे आचार ज होये, पीतवान छत्रीश गुण शोभे रे. भ० श्री सिद्ध० २ पश्चिम नीला गुण पच्चवीश, वाचक द्वादश अंगी रे; भ० श्री सिद्ध० उत्तर दीशे सोहे धनवान, गुण सत्तावीस तनुं तापे रे. भ० श्री सिद्ध०३ नाण नमुं अग्नि खूणे रे, भेद अकावन उज्वल वर्ण

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