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वयमां रे, द्रव्य लोचन अवराय रे भ०॥४॥ ज्ञान लोचन प्रकाशथी रे, अभिग्रह धरे सुजाण; जो नेत्र पडल दूरे थशे रे, संयम लेशु सुख खाण रे भ०।।५।। दृढ अभिग्रह प्रभावथी रे, मनवंछित सिद्ध थाय; संवत ओगणीश पंदरमा रे, चक्षु दर्शन शुद्ध थाय रे भ०॥६॥ संवत ओगणीश वीशमां रे, श्री सिद्ध क्षेत्र मोझार; तीर्थपतिनी समक्षमां रे, उचरे चतुर्थ व्रत सार रे भ० ॥७॥ चढते संवेग रंगथी रे, आव्या आडीसर गाम; गुरू गुणवंता वखाणीये रे, पद्मविजयजी नाम रे भ०॥८॥ तेहनी पासे संयम लीये रे, ओगणीसो पचीस मोझार; वैशाख अक्षय त्रीज भली रे, शुभ मुहूर्त शुभ वार रे भ०॥६॥ संयम लइ आनंदथी रे, करे गुरू साथ विहार; विहार करी शुभ भावथी रे, आगम भणे सुखकार रे भ०॥१०॥ अनुक्रमे सूत्र धारतां रे, मूल अर्थ विस्तार रे; एम पीस्तालीस सूत्रनारे, जाण थयां निरधार रे भ०॥११॥ संवत ओगणीस अडत्रीशे रे, गुरू सिधाव्या परलोक; पछी विचरी प्रतिबोधीया रे, अनेक देशनां लोक रे भ०।१२।। कच्छ काठियावाड भलो रे, सोरठ गुजरात सार; मेवाड मारवाड तेम सही रे, थरादरी वढीआर रे भ०॥१३॥ ज्ञान क्रिया उपदेशता रे, मधुर वचने मनोहार; दृष्टांत बहु दर्शावी ने रे, समजावे धर्म सार रे भ०॥१४॥ तेह देशना सांभली रे, दीक्षा केइ भव्य लीध; केइक देशविरति ग्रहे रे, समकित केइ प्रसिद्ध रे भ०॥१६॥ निर्मल भावना भावतां रे, संवेगी शिरदार; काम कषायने जीपता रे, निर्मम निरहंकार रे भ०॥१६।। तपसीने व्याधि थयो रे, दुर्बळ थयुं निज देह; तोपण द्रढ श्रद्धा थकी रे, तप नवी मूके जेह रे भ०।।१७।। चोपन वर्ष एम चोपथी रे, कीधो पर उपगार; अखंड चारित्र पालीने रे, सफल कर्यो अवतार रे भ०॥१८॥ पंचावननां वर्ष मांहे, अधिक व्याधि थयो जाम; आतम बल आगल धरी रे, धरतां सिद्धनुं ध्यान रे भ०।।१६। संवत ओगणीश ऐंशीये रे, अषाढ कृष्ण छठ्ठ धार; शुक्रवारे सिधावीया रे, परलोक पलांसवा मझार रे भ० ॥२०॥ तेहनी भक्ति पूरे भर्या रे, हीर विजयजी गुण गेह; शिष्य कनक कहे भवि तुमे रे, गुरू पद नमो ससनेह रे भ०॥२१॥ (54) (स्व) श्री कनक सूरीश्वरजी म० सा०नी सज्झाय (दोहा) श्री शंखेश्वर साहिबा, पुरिसादाणी पास; प्रणमी गुरू गुण वर्णवू,