Book Title: Prachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Author(s): Dinmanishreeji
Publisher: Dhanesh Pukhrajji Sakaria

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Page 585
________________ 536 रे, नाम धर्यु वर्द्धमान विख्यात रे; चंद्रकला जिम वाधे वीर रे, आठ वरसना थया वड वीर रे. ॥६॥ देव सभामां इंद्र वखाणे रे, मिथ्यादृष्टि सुर नवि माने रे; सापर्नु रुप करी विकराल रे, आव्यो देव बिवराववा बाळ रे. |७|| नांख्यो वीरे हाथे साही रे, बालक रुप करी सुर त्यांही रे; वीरनी साथे आव्यो रमवा रे, जाणी हार्यो सुर ते बळमां रे. ॥८॥ निज खंधोले वीरने चडावे रे. सात ताड प्रमाण ते थावे रे; वीरें मार्यो मुष्टि प्रहार रे, बीनो सुर ते कर्यो पोकार रे. ॥६॥ देव खमावी कहे सुण धीर रे, जगमां महोटो तुं महावीर रे; माता पिता हवे मुहुर्त वारु रे, सुतने महेले भणवा सारु रे. ॥१०॥ आवी इंद्र ते पुछवा लाग्यो रे, वीरे संशय सघळो भाग्यो रे; जैन व्याकरण तिहां होवे रे, पंड्यो उभो आगळ जोवे रे. ॥११॥ मतिश्रुत अवधिज्ञाने पूरा रे, संयम क्षमा तपें शूरा रे; अति आग्रहथी परण्या नारी रे, सुख भोगवे तेह शुं संसारी रे. ॥१२॥ नंदि वर्धन भाई वडेरो रे, व्हेनी सुदंसणा बहु सुख दायी रे; सुरलोके पहोंता माय ने ताय रे, पूर्ण अभिग्रह वीरनो थाय रे. ॥१३॥ देव लोकांतिक समय जणावे रे, दान संवत्सरी देवा मंडावे रे; मागशिर वदि दशमि व्रत लीनो रे, तीव्र भावथी लोच तव कीनो रे. ॥१४॥ देश विदेशे करे विहार रे, सहे उपसर्ग सबळ उदार रे; पुरुं पांचमुं वखाण ते आंही रे, बुध माणेक विजय उमांहि रे. ॥१५।। (45) पष्ठ व्याख्याननी सज्झाय चारित्र लेता खंधे मुकयु, देवदुष्य सुरनाथे जी; अधु तेहने आप्यु प्रभुजी; ब्राह्मणने निज हाथे जी. ॥१॥ विहार करंतां कांटे वलग्युं, बीजु अर्द्ध ते चैल जी; तेर मास सचैलक रहिया, पछे कहीयें अचैल जी. ॥२॥ पन्नर दिवस रही तापस आश्रमें, स्वामी प्रथम चोमासें जी; अस्थिग्रामे पहोतां जगगुरु, शुल पाणीनी पासें जी. ॥३॥ कष्ट स्वभाव व्यंतर तेणे कीधा, उपसर्ग अति घोर जी; सही परिसह ते प्रतिबोधी, मारी निवारी जोर जी. ॥४॥ मोराक गामे काउस्सग्ग प्रभुजी, तापस तिहां कर भेदी जी; अहच्छंदकनुं मान उतार्यु, इंद्रे आंगुली छेदी जी. ॥५॥ कनक बले कौशिक विषधर, परमेश्वर पडिबोह्यो जी; धवल रुधिर देखी जिन देहे, जाति समरण सोह्यो जी. ॥६॥ सिह देव जीवे कियो परिषह, गंगा नदी उतारे जी; नावने

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