________________
304
ते फव्यां, अनुबंधे हो चारे परमाण के, जे तुमची आणे मिल्या ।३। नाम थापन हो द्रव्य भाव स्वभाव के, चार निक्षेप जे तुम तणा। त्रिभुवनमा हो तारक छे एह के, जेहने ए तस शी मणा । ४। करूणाकर हो जगजन प्रतिपाल के, श्री विश्वसेन नृपनंदनो, अचिरामाता हो वळी पंचम चक्री के, सोलमो जिन कंचनवानो । ५ । मृग लंछन हो मूर्ति मनोहार के, सुरति सुंदर देखीये । बहु मोहे हो वंद्या जिन आज के, ज्ञानविमल गुण भाविये ।६।
(22) श्री शान्ति जिन स्तवन सुखदाई हो श्री शांति जिणंद के, साहिब सुणीए विनती, सेवकनी हो सुपरे दिलमांही के, बहु दिन केरी जे हती, तुज आणा हो पाखे निरधार के, काळ अनंत लगे भम्यो, भिन्न रूपे हो धरी आतम भाव के, शुद्ध अभेदे नवि नम्यो । १। जे भाख्या हो दंडक चउवीश के, तेहमां नव दंडक अछे । तुम भगति हो हीणा नर जेह के, प्राये ते तेहमां अछे। निक्षेपा हो जिनना छे चार के, सरीखे भावे जाणवा। तिहां बहुली हो छे प्रवचन साख के, मन संदेह न आणवा ।२। तुज मुद्रा हो नीरखीने जेह के, हरख न पाम्या प्राणीया। ते दुर्लभ हो बोधि निरधार के, जाणो प्रथम गुणठाणीया। तस तप जप हो किरीयानो धर्म के, कारण ते सवि कर्मना। नवि आवे हो संसारनो पारके, मर्म न पामे धर्मना, तुज चरणे हो आव्यो हुं आज के। सामग्री सघळी सही। जे दोहीला हो चारे परमांग के। ते पाम्या में गहगही। निज सेवक हो कामित न लहंत के, ते साहिब शोभा कीसी। अमे ले| हो तुम अचल साहि के देशो तुमे हरखे हसी।४। नवि जाण्या हो दीठा पण नाहि के, एहवो काळ घणो वयो। हवे जाण्या हो दीठा बहु हेज के, कहो किम हवे जाए रहयो। में जोडी हो एहवी एकांत के, प्रीति न जाए ते टळी। सूत्रार्थ हो जिम गुणपर्याय के, जिम दुधे धृत हळी मळी । ५ । वळी भव स्थिति हो कालादिक दोष के, अवलंबन बहु दाखशो । तेम निरखी हो उवेखी स्वामितो, पोतावट किम राखशो। वळी कहेशो हो अवसर नहि आज के, अविरति दोष देखाडशो । अवलंब्या हो आवि जे बांहि के । तेहने किम हवे छांडशो । ६ । वळी कहेशो हा अमे छु निराग के, सहु प्राणी सरीखा गणुं। नवि मार्नु हो अमे तेह वचन के, तारक बिरूद छे