Book Title: Prachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Author(s): Dinmanishreeji
Publisher: Dhanesh Pukhrajji Sakaria

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Page 571
________________ 522 सांभलो. टेक ॥१॥ तप तपे अति आकरो, मेले मलीन छे देह रे; श्रमणपणं दुक्कर घj, जलवाये नही अह रे. त्रीजो० ॥२॥ घर जावू जुगतु नही, ओम धारीने विरचे रे; वेश नवो त्रिदंडीनो, चंदन देहे ते चरचे रे. त्रीजो० ॥३॥ कर कमले ग्रहु दंडने, भगवू कपडं करवू रे; पाये उपानह पहेरणे, माथे छत्रने धरतुं रे. त्रीजो० ॥४॥ परिमित जलशुं स्नान हो, मुंड जटाजुट धारूं रे; राखु जनोइ सुर्वणनी, प्राणी स्थूल न मारु रे. त्रीजो० ॥५।। वेष करीने कुलिंगीनो, धर्म करे वली साचो रे; वाणी गुणे पडिबोहतो, जेहवो हीरो जाचो रे. त्रीजो० ॥६॥ जाणी दीक्षा योग्यने, आणी मुनिने आपे रे; जण जण आगल रागथी, साधु तणा गुण थापे रे. त्रीजो० ॥७॥ आदि जिणंद समोसर्या, साकेतनगर उद्योने रे; भरतजी वंदन संचर्या, वंद्या हरख अमाने रे. त्रीजो० ॥८॥ भरतजी वंदीने उच्चरे, कोई अछे तुम सरखो रे; स्वामी कहे सुण राजीआ, तुम सुत मरिची ओ परखो रे. त्रीजो० ॥६॥ वासुदेव पहेलो होंशे चक्रवर्ती मुकाओ रे; तीर्थपति चोवीशमो, नामे वीर कहाये रे. त्रीजो० ।।१०।। पुलकीत थइ प्रभु वंदीने, मरिची निकटे पहोतो रे; त्रण प्रदक्षिणा देइने, वंदे मन गह गहतो रे. त्रीजो० ॥११॥ गुण स्तवना करी इम कहे; वंदु छु अह मरम रे; वासुदेव चक्री थइ, थास्यो जिनपति चरम रे. त्रीजो० ॥१२॥ जिन वचनामृत दाखवी, रंगे उलट आणी रे; प्रणमी भरत घरे गयो, मरिचीने गुण निधि जाणी रे. त्रीजो० ॥१३॥ (ढा. ३) (राग :--अढारमे भवे) मरीची मन इम चिंतवे, भरत वचन सुणी, मुज सम अवर न कोय छे, ते जगमा अछे गुणी; जेटला लाभ जगतमां, छे ते में लह्या; अहो श्री आदि जिणंदे, निज मुखथी कह्या. ।।१।। रत्नाकर मुज वंश, अनोपम गुण युता, दादो जिनमां मुख्य, चक्रीमां मुज पिता; अहो उत्तम कुल माहरु, हुं सहुमां शिरे, धन धन मुज अवतार, हरिमां हुं धुरे. ॥२॥ चक्रवर्ती थइ चरम जिणेसर थाइरों, कनक कमल पर निजपद कमलने ठायशुं; सुरनर कोडा कोडी मली मुज प्रणमशे, प्रातिहारज वर आठशुं समवसरण थशे. ॥३॥ मद करवाथी नीच गोत्र इम बांधीउं, भव भव नीच कर्मचें फळ इहां साधीउं; ओक दिन रोग उदयथी मन अम चिंतवे, सेवा कारक शिष्य करुं कोइक हवे. ॥४॥ सार न पूछे ओ मुनि

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