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जनना मन मोहे, तरणी परे जन पडिबोहे। जिणंदराय० ३ नवि मत एकांत भणंती, जेह चार निक्षेपावंती। षटभाषामां परिणमती। जिणंदराय० ४ उपजे व्यय थिर त्रिक रूप, सर्व भावमां वर्तन स्वरूप, ते कहेवा वचन अनूप। जिणंदराय० ५ पणतीस गुणे गुणवंती, समकाळे संशय हरंती, मुखे शुभ चेतना विकसंती। जिणंदराय० ६ कैवल्य कासारथी निकसी, निश्चय व्यवहार प्रशंसी, मिथ्या कलिमल विध्वंसी। जिणंदराय० ७ सुणतां जिणवाणी शी वांच्छा, षटमास न भोजन इच्छा, दूरे निगमे भव विच्छा। जिणंदराय० ८ सवि दोष हरण जिनवाणी, सौभाग्य लक्ष्मीसूरी जाणी ए तो समकित सुखनी निसाणी। जिणंदराय० ६
(6) अनंत जिन स्तवन (ऋषभ जिणंदशुं प्रीतडी) अनंत जिणंदशुं प्रीतडी, नीकी लागी हो अमृतरस जेम। अवर सरागी देवनी। विष सरीखी हो सेवा करूं केम। अनंत० १. जिम पदमिनी मन पीउ वसे, निरधनीया हो मन धनकी प्रीत । मधुकर केतकी मन वसे, जिम साजन हो विरही जन चित्त। अनंत० २. करषणी मेह अषाढ ज्युं, निज वाछड हो सुरभि जिम प्रेम, साहिब अनंतजिणंदशं, मुज लागी हो भक्ति तेम। अनंत० ३. प्रीति अनादिनी दुःख भरी, में कीधी हो पर पुद्गल संग। जगत भम्यो तीण प्रीतशुं, स्वांग धारी हो नाच्यो नवनव रंग० ४. जिसको अपना जानीया, तिने दीना हो छिनमें अति छेह। परजन केरी प्रीतडी, में देखी हो अंते निःसनेह । अनंत० ५. मेरा कोई न जगतमें। तुम छोडी हो जिनवर जगदीश। प्रीत करूं अब कोनशुं, तुम त्राता हो मोहे विसवावीश। अनंत०६. आतमराम तुं माहरो, सिर सेहरो हो हियडानो हार । दीनदयाल कृपा करो, मुज वेगे हो अब पार उतार। अनंत० ७.
(7) अनंत जिन स्तवन (रूप अनूप निहाळी) अनंत जिणंद मुणिंद घनाघन उमयो। सकळ अशोकनी छांहि सभर छांई रह्यो। छत्रत्रयी चउपास चालता वादळां, चंचल चौदिश चामर बग परे उजळा । १। भामंडलनी ज्योति झबुके वीजळी, रत्नसिहांसन इन्द्र धनुष शोभा मिली। गुहिरो दुंदुहि नाद आकाशने पूरतो, चौविह देव निकाय मयुर