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घडी, मात पिता कुळ वंश, जि० ध० ७ मन मधुकर वर करजोडी कहे, पदकज निकट निवास; जि० धननामी आनंदघन सांभळो, ए सेवक अरदास, जि० ध० ८ (6) धर्मनाथ जिन स्तवन (राग : बहुत याद करते है महावीरको) ___थाशुं प्रेम बन्यो छे राज, निरवहेशो तो लेखे, में रागी प्रभु थें छो नीरागी, अणजुगते होय हांसी; एक पखो जे नेह निरवहवो, तेहमां की शाबाशी, था०॥१॥ नीरागी सेवे कांई होवे, इम मनमां नवि आणु; फळे अचेतन पण जिम सुरमणि तिम तुज भक्ति प्रमाणु, था०॥२॥ चंदन शीतलता उपजावे, अग्नि ते शीत मिटावे; सेवकनां तिम दुःख गमावे, प्रभु गुण प्रेम स्वभावे, था०॥३॥ व्यसन उदय जलधि अनुहारे, शशीने तेज संबंधे; अणसंबंधे कुमुद अणुहरे, शुद्धस्वभाव प्रबंधे, था०॥४॥ देव अनेरा तुमथी छोटा, थें जगमें अधिकेरा; जश कहे धर्म जिनेश्वर थारों, दिल मान्या हैं मेरा, था०॥५॥
(7) धर्मनाथ जिन स्तवन (राग : असो मति मैया) ___धर्म जगनाथनो धर्म सुचि गाईये, आपणो आतमा तेहवो भाविये; जाति जसु एकता, तेह पलटे नहि, शुद्ध गुण पज्जवा वस्तु सत्तामयी॥१॥ नित्य निरवयव वली एक अक्रियपणे, सर्वगत तेह सामान्य भावे भणे; तेहथी इतर सावयव विशेषता, व्यक्ति भेदे पडे जेहनी भेदता, ॥२॥ एकता पिंडने नित्य अविनाशता, अस्ति निज रिद्धिथी कार्य गत भेदता; भावश्रुत गम्य अभिलाप्य अनंतता, भव्यपर्यायनी जे परावर्त्तिता, ॥३॥ क्षेत्र गुण भाव अविभाग अनेकता, नाश उत्पाद अनित्य परनास्तिता; क्षेत्र व्यापत्व अभेद अवक्तव्यता, वस्तु ते रूपथी नियत अभव्यता धर्म प्राग्भावता सकळ गुण शुद्धता, भोग्यता कर्तृता रमण परिणामता; शुद्ध स्वप्रदेशता तत्त्व चैतन्यता, व्याप्त व्यापक तथा ग्राह्य ग्राहकता ॥५॥ संग परिहारथी स्वामी निज पद लघु, शुद्ध आत्मिक आनंद पद संग्रह्यु; जहवि परभावथी हुं भवोदधि वस्यो, पर तणो संग संसारताए ग्रस्यो, तहवि सत्ता गुणे जीव छे निरमळो, अन्य संश्लेष जिम स्फटिक नवि सामळो; जे परोपाधिथी दुष्ट परिणति ग्रही,