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परमात्मदर्शन,
( २२७ )
इन्द्रियो वडे उपभोग्य पदार्थो, तथा पांच प्रकारनी द्रव्येन्द्रिय तथा औदारिक वैक्रिय आहारक तेजस अने कार्मण ए पंच प्रकारनां शरीर तथा पौद्गलीक द्रव्य मन तथा द्रव्यकर्म नोकर्म विगेरे मूर्त पदार्थ पुद्गल द्रव्य जाणवुं. ए पुद्गल द्रव्य द्रव्यार्थिक नयी शाश्वतछे, अने पर्यायधिक नययी अशाश्वतछे. वस्तुतः पुद्गल द्रव्ययी आत्मा न्यारोछे, परपरिणति परिणामी थतां पुद्गल ग्राहक पुद्गल भोगी थए छते प्रति समये नवा कर्म बांधवे संसारी थयाछे, ज्यारे आत्मा स्वस्वरूप ग्राहक तथा स्वस्वरूप भोगी थाय त्यारे सर्वकर्म रही यह परम ज्ञानमयी परम दर्शनमयी परमानंद मयी सिद्ध, बुद्ध अगारी, अशरीरी, अयोगी, अलेशी, अनाकारी, निःप्रयासी, अविनाशी, अज, अविचल, विमल स्वरूप, सुखनो भोगी सिद्ध परमात्मा थाय, माटे सर्व जगत् जीवनी अॅठतुल्य पुद्गलना भोगनो त्याग करी स्वआत्मा स्वरूप भोगी पणाना रसीया थइ स्वस्वरूप अनुयायी चेतना योगे निजगुण स्थिरतारूप चारित्रनी प्राप्ती करवी. एज मनुष्य जन्म पाम्यानी साफल्यता जाणवी. षष्ठ विषय- धर्म क्यों रहेछे अने तेना हेतुओ कोण; विचार-संसाररूपी कूपमां पडता प्राणिओने धारी राखे तेने
धर्म कहेछे. धर्मना वे भेदच्छे व्यवहारधर्म अने निश्चयधर्म, प्रश्न - ज्यारे धर्म एकजछे, त्यारे तेना वे भेद केम कथन कर्या. उत्तर - जो के आत्मा मां स्थित धर्मरूप कार्य निश्चयता कारण विना
थती नथी. माटे सर्वज्ञ प्रभुए व्यवहार धर्म अने निश्चयधर्म ए मकानो धर्म कथ्योछे. व्यवहारथीजे धर्मछे ते निश्चय जे शुद्ध आत्मिक धर्म तेने प्रगटाववामां कारण छे. व्यवहार धर्म ते साधनछे अने आत्मिक धर्म ते साध्यछे. माटे कारण कार्यनी सापेक्षता ए वे भेदछे,
धर्मना पण
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