Book Title: Parmatma Darshan
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 393
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भात्मतस्वसाध्यछे. ____ २९३ २९४ (३४१ ) कोटिवर्षतुं स्वप्नपण, जागंतां लय थाय. आत्मज्ञान नद्योतथी, सहजरूप प्रगटाय. चेतनबुद्धि देहमां, जाणो देहाध्यास. छूटे देहाध्यासतो, कर्म कलंक विनाश. कर्ता नहि हुं कर्मनो, भोक्ता नहि हुंतास. शुद्धदशा प्रगटयाथकी, विघटे भवभयवास. २९५ चेतनधर्मे मोक्ष छे, तुंछे मोक्षस्वरूप; . भोगी रत्नत्रयितणो, क्षायिकशिवसुखभूप. २९६ सागरमांहि ल्हेरियो, उपजेने विणशाय; चेतनगुण जे ज्ञान छे, ज्ञेयपणे पलटाय. २९७ शुद्ध बुद्ध निर्मल प्रभु, स्वयंज्योति गुणधाम; चिदानन्द चेतन विभु, अनन्तगुणनुं ठाम. २९८ निश्चय अत्रज आवतां, साक्षर एक स्वरूप. योगत्रिकने संवरी, शिवनगरी :था भूप. २९९ रागादिक महावैरियो, ज्यां तेनो नहि गन्ध; आत्मलक्ष्यवृत्ति थतां, परपरिणति थइ बंध. ३०० देहनिष्ठ पण ध्यानथी, वर्ते देहातीत; वंदन वारंवार तास, त्रियोगे हो नित्य. ३०१ For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432