Book Title: Parmatma Darshan
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 418
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org परमात्मदर्शन, ( ४०७ ) भण्योगण्यो पण श्रावक कोय, गुरुथी अधिको नहि तेहोय; मेरु सरसव समछे फेर, अंतर अजवाळं अंधेर. ५१३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरझयणे तेनी साख, गुणना माटे कर अभिलाष; दृष्टि शानोज धर्म, द्वेषे वाह्य बांधे कर्म. + धर्मगुरुनीज आज्ञा धार, तखानुं ते तीर्थ विचार; तेथी पामो भवनो पार, सार सार तेछे सुखकार ५१५ साधुव्रतनोळे अभिलाष माने सद्गुरुनो हुं दास; अक्षुद्रादिक गुणनुं नाम, साधुं तेनुं श्रावक नाम. ५१६ पंचमहाव्रत पंचाचार, धर्मध्यानमां वर्त्ते सार भवभ्रमणभय आज्ञा जिन, वर्षे मन जेनुं निशदीन. ५१७ बाह्योपाधि विषवत् त्यजी, सहजसमाधि ज्ञाने भजी; जेने बोध्यं आत्मस्वरूप, नमुं नमुं प्रभु गुरु श्री अनुप५१८ पार्श्वमणि संयोगे लोह, भजे कनकता तेह अबोह जेना बोधे टळे सदाय, गुरुनी गुरुता प्राप्ति थाय. ५१९ ५१४ For Private And Personal Use Only एवा गुरुने सेवो भाइ, तीर्थ तीर्थ ते जग सुखदाइ; वाणी जेनी बहु गंभीर, चेतन योगी ध्यानी धीर. ५२० धर्मगुरु मज माणाधार, सदा शुद्ध तेनो उपकार; गुरुनी सेवा भक्ति मळे,तो भव कल्मकप सहेजे टळे, ५११

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