Book Title: Parmatma Darshan
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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-परमात्मदर्शन,
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बुद्धयाश्रय जो श्वासतो, स्वक्थी ते स्पर्शाया त्वचा ग्रहेछे श्वासने, केम न बडिग्रहाय. . ३७५ सोऽयं प्रतीतियोगथी, बुझ्याश्रय जे होय; आस्मतत्त्व ते जाणीए, नहि त्यांशंका कोय. ३७६
शिष्य उवाच. देहादिकथी भिन्न जो, मानो चेतनराय; भिन्न करी देखाडीए, असिम्यानने न्याय. ३७७
गुरु: नवाच. वायुरूपी पण नेत्रथी, निरख्यो कदा न जाय; जीव अरूपी चक्षुथी, कथं अहो निरखाय. ३७८
बौ६ नवाच.. क्षणिकसंतति ज्ञाननी, तेतो चेतन मान; प्रवृत्तिरूप विज्ञाननो, आलय उपादान. ३७९ एकरूप नहीं ज्ञानहूँ, क्षणे क्षणे बदलाय; ज्ञानसन्तति आतमा, मानो सवळो न्याय. ३८० क्षणिक सन्तति ज्ञाननी, मानंतां नहि दोष; क्षणिक उत्तर ज्ञानमां, पूर्व ज्ञाननो पोष. ३८१
गुरुः नवाच. ज्ञान क्षणिकनी सन्तति, चेतन नहि कहवाय, क्षणिक सन्तति मानता, पुण्य पाप कुण पाय ३८२
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