Book Title: Parmatma Darshan
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
परमात्मदर्शन,
( ३४३ )
आत्मद्रव्य हुं छे. सूर्य चंद्रादिकनी सहाय विना मारो शुध्ध ज्ञानरूप प्रकाश समये समये वर्तेछे. त्रण लोकना पदार्थनी उत्पादव्यय धौव्यतानी अनंतता मारा शुध्धज्ञानमां ज्ञेय स्वरुपे परिणमी समये समये भासेछे, ते ज्ञानगुण मारोछे. हुं ज्ञानतुं पात्र हुँ. धर्मास्तिकायादिकथी हुं भिन्न छु. तनु-धनादिक पदार्थो माराथी भिन्नछे. स्वद्रव्यादिकथी युक्त रत्नत्रयीनो स्वामी आत्मा तेज हुंछु, आवुं भेद ज्ञानरूप अत्र मोहनो नाश करेछे माटे सर्व परभावथी भिन्न एवा आत्मामां रमणता करवी. वळी जे भेदज्ञानीछे ते औदमिक भावमा लेपातो नथी. जेम आकाश कादवथी लेवातुं नथी तेम अत्र समजj.
वळी अध्यात्म बिंदु ग्रंथमां कहां छे केश्लोक. स्वत्वेन स्वं परमपिपरत्वेन जानन् समस्ता न्यद्रव्येभ्यो विरमणमिति चिन्मयत्वं प्रपन्नः स्वात्मन्येवाभिरतिमुपनयन स्वात्मशीली स्वदर्शी ॥ त्येवंकर्त्ता कथमपिभवेत् कर्मणो नैषजीवः ॥ १॥
जेणे आत्मामां आत्मपणुं जाण्युंछे. अने पुद्गलादिकमां परपशुं जाणी समस्त अन्य पदार्थोथी विराम पाम्योछे अने ज्ञानमयपणाने पाम्योछे. पोताना आत्मामां आनंद पामी स्वस्वरुपनो दश थयोछे एवो आत्माशी रीते कर्मनो कर्त्ता बनी शके ? अर्थात् एवी अध्यात्मदशामां रमण करनार जीव कर्मनो कर्त्ता बनतो नथी. पण पोताना आत्मस्वभावनो कर्त्ता थायछे. आत्माना स्वरूपमां रमण करनार योगीश्वरने जे सुख थायछे ते अनवधि सुख जाणवुं. परस्वभावथी रहित एवा मुनीश्वरने जगत् तृणवत् जाणवुं. अर्थात्
For Private And Personal Use Only
=

Page Navigation
1 ... 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432