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भारमस्वभाव.
(२ ) परपरिणतिपणेतानीमाने, क्रियागर्वे गहेलो। उनकुं जिनकहो केम कहीए, सो मूरखमें पहेलो--परम जैनभावे ज्ञाने सबमाहि, शिवसाधन सहहीए; नाम भेखसुं काम न सीजे,भाव उदासी रहीए-परम ज्ञान सकलनय साधन साधो, क्रिया ज्ञानकी दासी; क्रिया करत धरतु हे ममता, आइ गलमे फांसी-परम
इत्यादि समजी स्वस्वभावमा रमण करवू. एज सारमा सार आत्महित कर्तव्यनी पराकाष्ठा जाणवी. सर्व पुद्गलभावमांथी प्रीति हठावी एक आत्मामां प्रीति जोडवी. सर्व जगत् प्रपंच दुःखमय छे एम आत्मार्थीए सतत अंत:करणमां भावना भाववी. प्रथम बाल जीवने बाह्य वस्तुमा सुख ज्यां त्यां लागेछे अने अंतर्मा उतरवू ते महा दुःख लागेछ, पण ज्यारे द्रव्यानुयोगनुं ज्ञान थायछे अने आत्मतत्त्वनी सम्यक् श्रधा थायछे त्यारे अंतरमा एटले आत्मस्वरुपमां सुख लागेछे अने बाह्य जगत्मां दुःख भासेछे. अमृतरस भोजनना करतां पण ज्ञानीने आत्मस्वभावमा अनंतगुणु विशेष सुख लागेछे. अमृतरसभोजननुं सुख क्षणिक छे अने आत्मसुख तो नित्यछे माटे ते अनुपमेय छे. आत्मसुखनुं वर्णन करोडो जिहाथी लाखो वर्ष सुधी वर्णन थतां पण कदापि पुरु यतुं नथी. आत्मिक सुख अवर्ण्य छे. ___ अनुभवज्ञाननी ज्यारे प्राप्ति थायछे त्यारे आत्मिकमुखनी सत्य निश्चय प्रतीति थायछे. अनुभवज्ञान विना सत्य सुखनी :सीति यती नथी श्री चिदानंदजी महाराज पण अनुभवज्ञान विषे मानंदमां आपी गद्धारा विवेचन करेछे. यथा.
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