Book Title: Parmatma Darshan
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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( ३७८ )
मावाद निराकरण.
केवलज्ञाने आतमा, व्यापक सहुमां जोय; स्वपर प्रकाशक आतमा, प्रदीप पेठे होय. तिमिरारि प्रगटे तदा, तमनो शो छे भार; ज्ञानदीपक उद्योतथी रहे नदि अंधकार. अद्वैत स्वरूपी आतमा, जडथी भिन्न विचार; द्वैतपणुं पण तेहमां. एक अनेकाधार.
सुंर कोनाथकी, कोनापर ममभाव; मृगजलोपम वस्तुमां, शो ममतानो दाव
.
२५७
अक्षररूपे आतमा, अनक्षर गुणवान; आत्माऽसय प्रदेशमां, स्थिरता शुद्ध वखाण. २६०
नहीं मारु जड वस्तुमां, राचं शुं संसार; शाथी शाने माटे में, लीधो मही अवतार.
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२५८
भास्यो आपोआपमां, टक्युं महा अज्ञान; अपूर्व वीर्यज उल्लस्युं, यदा थयुं निज मान. २६१ जड इन्द्रियो शुं करे, तेनाथी हुं भिन्न; जडस्वरूपे तेह छे, क्षणिक नाशी दीन. मन वाणी मारां नहीं, जडनुं छे ते काज; तेनी संगे राचतां, नहीं रहे मुज लाज.
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